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________________ ( १४६ ) सम्भव नही है, परको अपने रूप बतलाने मे “सोह" शब्द सम्भव है। जैसे-पुरुप आपको आप जाने, वहाँ "सो मै हूँ" ऐसा किसलिए विचारेगा ? कोई अन्य जीव जो अपने को न पहिचानता हो और कोई अपना लक्षण न जानता हो, तब उससे कहते हैं-'जो ऐसा है सो मैं हूँ" उसी प्रकार यहाँ जानना। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ १२१] (आ) 'तत्' शब्द है वह 'यत्' शब्द की अपेक्षा सहित है इसलिए जिसका प्रकरण हो उसे 'तत्' कहते हैं और जिसका जो भाव अर्थात् स्वरूप है उसे तत्व जानना, क्योकि 'तस्य भावस्तत्वम्' ऐसा तत्व शब्द का समास होता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१७] ___(इ) ४-५-६ गुणस्थान मे शुद्ध के साथ शुभ से भी धर्म की प्राप्ति नही होती है। परन्तु शुद्ध के साथ शुभ होने से (वह शुभ शत्रु है बध का कारण है आत्मा का नाश करने वाला है, घातक है) शत्रु को भी भूमिकानुसार आ पडने से सहचारी (निमित्त) व्यवहारनय कहा है। परन्तु ज्ञानी का शुभ भाव भी बन्ध का कारण है, हेय है, आत्मा के स्वभाव मे विघ्नकारक है, इसलिए त्याज्य है। (ई) जो श्रद्धा मे शुभ को मोक्ष का कारण माने वह मिथ्यादृष्टि ही होता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२६) (उ) दिगम्बर नाम धराके अपने को शुभरूप का श्रद्धान-ज्ञान और आचरण करता है अर्थात् अपने को अणुव्रती, महाव्रती आदि मानता है उसे 'सोह' शब्द लागू नही हो सकता है। (८) (अ) आत्मा का अनुभव किस गुणस्थान में होता है ? उत्तर- चौथे से ही होता है, परन्तु चौथे मे तो बहुत काल के अन्तराल से होता है और ऊपर के गुणस्थानो मे शीघ्रातिशीघ्र होता है। (आ) प्रश्न–अनुभव तो निर्विकल्प है, वहाँ ऊपर के और नीचे के गुणस्थानो मे भेद क्या है ? उत्तर-परिणामो की मग्नता में विशेष है। जैसे दो पुरुष नाम
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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