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________________ ( १४५ ) एकदेश मोह-क्षोभ का अभाव होने पर जो-जो शुभ परिणाम होते है, उन्हे उपचार से धर्म कहा जाता है । वास्तव मे तो वह वीतरागता का शत्रु है किन्तु निमित्त का ज्ञान कराने के लिए व्यवहारनय से ऐसा कथन आता है। (ख) भगवान कुन्द-कुन्द, अमृतचन्द्रादि आचार्यों ने शभभाव को अपवित्र, जडस्वभावी, दुःखरूप, लाख के समान, अनित्य, अध्र व, अशरण, वर्तमान मे दुखरूप, आगामी भी दुखरूप कहा है तब काई. मूर्ख शुभभावो से मोक्ष या सवर-निर्जरा कहे, आश्चर्य है। [समयसार गा० ७२ ७४] चौथे गुणस्थान से शुरू होकर यथाख्यातचारित्र तक साथ रहने मे विरोध नही है । जैसे अन्धकार और प्रकाश के तथा सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान के साथ रहने मे विरोध हैं, वेसे हो चौथे गुणस्थान से लेकर यथाख्यातचारित्र तक ज्ञानधारा और कर्मधारा के साथ रहने मे विरोध नहीं है । यथाख्यातचारित्र प्रगट होने पर कर्मधारा का अभावहो जाता है। (ग) जब तक पुण्यकर्म, पुण्यभाव, पुण्य की सामग्री और परलक्षी-- ज्ञान की मिठास रहेगी, तब तक सर्वज्ञ-सर्वदर्शी स्वभाव की श्रद्धा भी नही हो सकती अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नही होगी और जब तक पर्याय मे शुभभाव रहेगा, तब तक सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नही बन सकता। [समयसार गा० १६०] (७) सोह और अनुभव (अ) 'सोह' शब्द का तो अर्थ यह है 'सो मै हूँ'। यहाँ ऐसो अपेक्षा चाहिए कि-'सो' कौन ? तब उसका निर्णय करना चाहिए। क्योकि 'तत' शब्द को और 'यत' शब्द को नित्य सम्बन्ध है। इसलिए वस्तु का निर्णय करके उसमे अहवुद्धि धारण करने मे "सोह" शब्द बनता है । वहाँ भी आपको आपरूप अनुभव करे, वहाँ तो "सोह" शब्द
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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