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________________ ( १४४ ) दृष्टि, पापी मोही दुष्ट, अनिष्ट, मोक्ष का घातक आदि अनेक नामो से कहा है । [ समयसार कलश १०० से लेकर ११२ तक ] ( औ) ( मिथ्यादृष्टि के शुभभावो ) " समस्त अनर्थ परम्पराओ का - रागादि विकल्प ही मूल है ।" मिथ्यादृष्टि के शुभभावो को पापबंध का कारण कहा है। [पचास्तिकाय जयसेनाचार्य गा० १६८ ] [ परमात्मप्रकाश अध्याय प्रथम गा० ६८ ] ( अ ) देव- गुरु- शास्त्र पर है । इनके आश्रय से जो भाव है वह पराश्रित भाव है इसलिए वह भाव त्यागने योग्य और वध का कारण है, सवर - निर्जरा का कारण नही है पराश्रित भाव है, अतत्वश्रद्धान है, 'क्रोध, मान, अरति शोक, भय, जुगुप्सा यह छह द्वेष परिणति है और माया, लोभ, रति, हास्य, पुरुष, नपुसक, स्त्री वेद ये सात राग परिगति है । इनके निमित्त से विकार सहित मोह-क्षोभरूप चकाचक व्याकुल परिणाम हैं । (अ.) जो परमात्मा की पूजा भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, दया दान, यात्रादि शुभभावो से अपना हित होना माने, वह मिथ्यात्वलम्वी है । 'निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र गुण की पर्याय मे दो अग हो जाते है जितनी शुद्धि है वह मोक्षमार्ग है और जो अशुद्धि है बधमार्ग है । परन्तु ४-५-६ गुणस्थानो मे भूमिकानुसार, शुभभावो को व्यवहार धर्म कहा है, परन्तु वह आस्रव वध का कारण है उससे अल्प ससार का बन्ध होता है ऐसा बताया है । परन्तु जीव मात्र शुभभावो से ही "धर्म मानते हैं उनको तो कभी धर्म की प्राप्ति का अवकाश ही नही । (क) मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग का कारण हैं ही - नही । परन्तु सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग होने पर उसका अभाव करके " नियम से शुद्ध मे आ जाता है। इस अपेक्षा चरणानुयोग मे कही-कही मोक्ष का कारण कहा है। उसका अर्थ 'ऐसा है नही, निमित्त की अपेक्षा कथन किया है' । वास्तव मे तो शुभभाव किसी का भी हो, "वह बन्ध का ही कारण है ऐसा जानना । [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५६]
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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