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________________ ( १४३ ) ___- (आ) लौकिक जन तथा अन्यमती कोई ऐसा कहे कि, जो पूजा-- दिक शुभक्रिया और व्रतक्रिया सहित हो, वह जिन धर्म है किन्तु ऐसा नहीं है उपवास व्रतादि जो शुभक्रिया है, जिनमे आत्मा के राग सहित गुभ परिणाम हैं, उससे पुण्यकर्म उत्पन्न होता है इसलिए उसे पुण्य कहते है, और उसका फल स्वर्गादिक भोग की प्राप्ति है। जो विकार रहित शुद्ध दर्शन-ज्ञानरूप निश्चय हो वह आत्मा का धर्म है उस धर्म से सवर होता है, सवर पूर्वक निर्जरा होते हुए मोक्ष होता है इसलिए मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम धर्म है। [भावपाहुड गा० ८३ का भावार्थ (इ) जो जैन पूजा व्रत दानादि शुभ क्रिया से धर्म माने, जिनमत से बाहर हैं। [भावपाहुड गा० ८४-८५ भावार्थ ] (ई) प्रश्न-पुण्य से सवर-निर्जरा मोक्ष कौन मानता है ? उत्तर--श्वेताम्बर, "व्रतादिरूप शुभोपयोग ही से देवगति का वध मानते हैं और उसी से मोक्षमार्ग मानते है, सो बधमार्ग और मोक्षमार्ग को एक किया, परन्तु यह मिथ्या है।" [मोक्षमार्गप्रकाशक १५८] (उ) व्यवहार कुछ तो मददगार है, व्यवहार को निमित्त कहा है ना; ऐसे पुण्यकर्म के पक्षपाती को अर्थात् व्रत-शीलादि को मोक्ष के कारणरूप मे अगीकार करते हैं उन्हे नपुसक कहा है। [समयसार गा० १५४] (अ) निश्चय के विषय को छोडकर विद्वान (मूर्ख) व्रतादि निमित्त व्यवहार के द्वारा ही प्रवर्ते है उन पण्डितो का कर्म क्षय नही होता है। [समयसार गा० १५६ (ए) भगवान द्वारा कहे हुए व्रत, समिति, गुप्ति, शील, लप करता हुआ भी अभव्य-अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि है। [समयसार गा० २७३] (ऐ) सम्यग्दृष्टि के शुभभाव को मोक्ष का घातक कहा है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५५] (ओ) जो शुभभावों से मोक्ष सवर निर्जरा मानते हैं उन्हे मिथ्या--
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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