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________________ ( १४१ ) (आ) १३वे गुणस्थान मे जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है और १४वे गुणस्थान मे आयोगीदशा को प्राप्त होता है। १४वे गुणस्थान के अन्त मे सिद्धदशा अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है । सर्व गुणस्थान जीव को देह सहित अवस्था में होते हैं। मोक्षदशा गुणस्थानो की कल्पना से रहित है इसलिए गुणस्थान जीव का स्वरूप नही है, पर है, परजनित भाव है ऐसा जानकर गुणस्थानो के विकल्प रहित शुद्धवुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिए। [समयसार नाटक चतुर्दश गुणस्थान अधिकार अन्तिम] (इ) आत्मा और बन्ध को अलग-अलग करना मोक्ष है। जो 'निविकार चैतन्य चमत्कार मात्र आत्म स्वभाव को और उस आत्मा के विकार करने वाले भाव बन्ध के स्वभाव को जानकर बन्धो से 'विरक्त होता है, वही समस्त कर्मों से मुक्त होता है। समयसार गाथा २६३] (ई) बन्ध का स्वलक्षण तो आत्मद्रव्य से असाधारण ऐसे रागादि हैं। यह रागादि आत्मद्रव्य के साथ साधारणत धारण करते हुए प्रतिभासित नही होते, क्योकि वे सदा चैतन्य चमत्कार से भिन्न रूप प्रतिभासित होते हैं और जितना चैतन्य आत्मा की समस्त पर्यायो मे व्याप्त होता हुआ प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नही होते, क्योकि रागादि के बिना भी चैतन्य का आत्मलाभ सम्भव है (अर्थात् जहाँ रागादि ना हो वहाँ भी चैतन्य होता [समयसार गा० २६४ टीका से] (उ) जो पुरुष पहले समस्त परद्रव्य का त्याग करके निजद्रव्य मे (आत्म स्वरूप मे) लीन होता है, वह पुरुष समस्त रागादिक (महाव्रतादि) अपराधो मे रहित होकर आगामी वन्ध का नाश करता है और नित्य उदयरूप केवलज्ञान को प्राप्त करके शुद्ध होकर समस्त कर्मों का नाश करके, मोक्ष को प्राप्त करता है । यह मोक्ष होने का क्रम है। [समयसार कलश १६१ का भावार्थ]
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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