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________________ ( १४० ) चारित्र होता है ऐसा सिद्ध किया है। इस पर भी जो कहते है कि स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता, तो मिथ्याचारिन होना चाहिए, परन्तु यह न्याय सगत नही है भीर जो कहते हैं कि चौथे गुणस्थान मे स्वरूपाचरण चारित्र नही होता है वह मिथ्यादृष्टि, जिनमत से वाहर, पापी और जिनशासन का विरोध करने वाले है। (क) तत्वज्ञान के अभ्यास से कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट ना भास तब स्वयमेव क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते, तब सच्चा धर्म होता है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२९]. (५) मोक्ष जीव का हित मोक्ष है। इसलिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए कहा है कि सम्यग्दर्शन का फल चारित्र है और चारित्र का फल मोक्ष है। चारित्र विना कोई भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए तीर्थकर नाम कर्म सहित और तीन ज्ञान सहित जन्मे हुए जीवो को भी चारित्रदशा प्राप्त किए विना अर्थात् भावलिंगी मुनिदशा पाये विना मोक्ष नहीं होता। इसलिए सम्यग्दर्शन होने पर ही सवर अर्थात् धर्म की शुरुआत होती है। (अ) सवर की महिमा ५० वनारसीदास जी ने गाई है : नास्रवरूप राक्षस जगत के जीवो को अपने वश मे करके अभिमानी हो रहा है वह अत्यन्त दुखदायक और महाभयानक है। उसका वैभव नष्ट करने योग्य है। उसके वैभव को नष्ट करने के लिए जो उत्पन्न हुआ है वह धर्म का धारक है । कर्मरूप रोग को मेटने के लिए वैद्य समान है। जिसके प्रभाव से परद्रव्य जनित राग-दृप आदि विभावभाव भाग जाते हैं । जो अत्यन्त प्रवीण और अनादिकाल से प्राप्त नही हुमा था, इसलिए वह नवीन है । सुख समुद्र की सीमा को प्राप्त किया जिसने, ऐसे सवररूप को धारण किया है वह मोक्षमार्गः का साधक है ऐसे ज्ञानी बादशाह को मेरा प्रणाम। [४०७].
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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