SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (अ) घातिया कर्मों को पाप कहा है । मिथ्यात्व, मसयम, कषाय न्ये पाप क्रिया हैं । इन पाप क्रियाओ का अभाव होना वह चारित्र है । [धवल पु० ६ पृष्ठ ४०] (ए) सयमन करने को सयम कहते है। सयम शब्द का अर्थ सम्यक होता है। इसलिए सस्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक अन्तरग और 'बहिरग आत्रवो से विरत, वह सयम है। धवल पु०१पृ० १४४, ३६६] (ऐ) चारित्र दो प्रकार का है देशवारित्र, सकलचारित्र । श्रावक को पाँचर्वा गुणस्थान और मुनियो को छठा, सातवाँ गुणस्थान है। वहाँ निश्चय स्वभावभूत चारित्र का सच्या अश होता है। धवल पुस्तक ५ पृष्ठ २३३] (ओ) सयम कहने से छठे गुणस्थान से १३वे गुणस्थान तक का ग्रहण है क्योकि सयम भाव की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । इस प्रकार करणानुयोग के शास्त्रो का कथन स्पष्ट है। निश्चय चारित्र ५बे, वे गुणस्थानवर्ती श्रावक और मुनि को होता है। वह सच्चा चारित्र है। इसलिए मुनि के योग्य स्वरूपाचरण चारित्र होवे, तव श्रावक को 'एकदेशस्वरूपाचरण चारित्र होता है। चौथे गुणस्थान मे स्वरूपा चरण चारित्र का मूल ही होता है क्योकि दर्शन धर्म का मूल है। स्वरूपाचरण चारित्र धर्म है। उसको मनाक (अल्प) धर्म परिणति अथवा स्वरूपाचरण चारित्र की कणिका की शिखा फूटना कहो, एक ही वात है। (औ) अनन्तानुबन्धी के अभावत स्तल्पाचरण चारित्र सम्यन्दृष्टि के प्रगट होता है। [रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० ४१ पृ० ६८] (अ) चौथेगुणस्थान मे 'सवर' शब्द को शुद्धोपयोग कहा है। [वहतद्रव्य सग्रह गा० ३४] (अ ) सम्यग्दर्शन स्वरूपाचरण चारित्र का मूल है। वहाँ अनन्तानुवन्धी का अभाव है। इसलिए चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy