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________________ ( १३८ ) अपना ज्ञाता दृष्टीरूप स्वभाव का श्रद्धान अनुभव तथा ज्ञायक स्वभाव * मे ही प्रवर्तनरूप जो आचरण वह धर्म है । (ओ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र इन तीनो को धर्म के ईश्वर भगवान तीर्थकर परमदेव धर्म कहते हैं । [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० २-३ पृष्ठ २ मे तथा ७-८ मे धर्म की व्याख्या की है ] ऊपर की व्याख्याओ से ऐसा सिद्ध हुआ श्रावक - मुनि दोनो धर्म है, इसलिए वह चारित्र है साम्य है । चौथे गुणस्थानधारी जीवो को मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कपाय के अभावरूप स्वरूपाचरणचारित्र होता है इसलिए वह भी धर्म है, साम्य है, ऐसा जानना । (४) चारित्र की व्यारया (अ) स्वरूप मे चरना वह चारित्र है । स्वसमय मे प्रवृत्ति उसका अर्थ है । [प्रवचनसार गा० ७] । ( आ ) चरण वह स्वधर्म है । धर्म आत्म स्वभाव है और वह रागद्वेप रहित जीव के अनन्य परिणाम है [ मोक्षपाहुड सूत्र ५० ] (इ) जो जानता है वह ज्ञान और जो प्रतीति करता है वह - दर्शन | दोनो के सहयोग ( एकमेक) से चारित्र है । [ चारित्रपाहुड सूत्र ३ ] (ई) आत्मलीन जीव सम्यग्दृष्टि है । जो आत्मा को जानता है वह सम्यग्ज्ञान है और उसमे रक्त वह चारित्र है । [ भावपाहुड गा० ३१] ( उ ) शुद्धात्मा श्रदानरूप सम्यक्त्व का विनाश वह दर्शनमोह 'है । निविकार निश्चय चित्तवृत्ति विनाशक वह क्षोभ है । [प्रवचनसार जयसेनाचार्य गा० ७ ] इस प्रकार मे व्याख्या करता हुआ, धर्म, चारित्र, साम्य, मोह, • क्षोभ रहित परिणाम ऐकार्थवाचक है ।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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