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( १३७ ) वह निर्मलता यथाख्यातचारित्र का अकुर है। सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरण की कणिका जागृत होती है तब मोक्षमार्ग सच्चा होता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक उपादान निमित्त चिट्ठी से]. (आ) परिणति के स्वाद को चारित्र कहा है ।
[प्रवचनसार गा० ११] (इ) चारित्र की कणिका इतनी थोडी है कि सयम चारित्र ऐसे नाम को प्राप्त नही होती है इसलिए सम्यग्दृष्टि को अस यत सम्यग्दृष्टि. कहा है।
(ई) दर्शन विशुद्धि मूल है। सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान ज्योति का मूल है। सम्यग्दर्शन वह सम्यग्ज्ञान' मे उपयुक्त होने का मूल है।
(३) धर्म की व्याख्या (अ) "चारित्त खलु धम्मो" चारित्र वह वास्तव मे धर्म है। (आ) धर्म है सो साम्य है। (इ) स्वरूप मे चरना वह चारित्र है स्वसमय मे प्रवृत्ति ऐसा उसका अर्थ है । (ई) मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम वह धर्म है।
[प्रवचनसार गा०७] (उ) अहिंसा लक्षण धर्म, सागर-अनगाररूप धर्म, उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म, मोह-क्षोभ रहित आत्म परिणाम धर्म ।
प्रवचनसार जयसेनाचार्य गा० ११] (ऊ) मिथ्यात्व रागादि सन्सरणरूप भाव ससार मे पडते प्राणियो को उद्धार कर निविकार शुद्ध चैतन्य को प्राप्त करे वह धर्म है ।
[प्रवचनसार जयसेनाचार्य गा० ७] (ए) जो नरक, तिर्यंचादिक गति में परिभ्रमणरूप दु ख त आत्मा को छुडाय उत्तम, आत्मिक, अविनाशी, अतीन्द्रिय मोक्ष सुख मे धारण करे सो धर्म हैं।
(ऐ) धर्म तो आत्मा का स्वभाव है जो पर मे आत्म बुद्धि छोड'