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( १३६ ) ज्ञान प्रगट होय है और अनन्तानुवन्धी के अभावतै स्वरूपाचरण चारित्र सम्यग्दृष्टि के प्रगट होय है ।
[रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० ४१ पृष्ठ ६८] प्रश्न-(इ) स्वरूपाचरण चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर--शुद्धात्मानुभव से अविनाभावी चारित्र विशेष को स्वरूपाचरण चारित्र कहते है।
[जैन सिद्धान्त प्रवेशिका गोपालदास जी पृष्ठ ५१ प्रश्न न० २२३ देखो
प्रश्न--(ई) अविरत सम्यग्दष्टि गुणस्थान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-दर्शन मोहनीय की तीन और अनन्तानुवन्धी की चार प्रकृतियाँ-इन साल प्रकृतियो के उपशम अथवा क्षय अथवा क्षयोपशम के सम्बन्ध से और अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय मे युक्त होने वाले, जलरहित तथा अशत स्वरूपाचरण चारित्र सहित निश्चय सम्यक्त्वधारी चौथे गुणस्थानवर्ती होते है । (अनादि मिथ्यादृष्टि को पाँच प्रकृतियो का उपशम होता है)।
[जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तर माला पृष्ठ ६८ प्रश्न नं० २१३] [जैन सिद्धान्त प्रवेशिका गोपालदासजी पृष्ठ १५८ प्रश्न न० ६११]
इसलिए चौथे गुणस्थान मे अनन्तानुवन्धी के अभावरूप स्वरूपाचरण चारित्र नियम से होता ही है।
चारित्र को व्याख्या-घाति कर्मो को पाप कहते हैं और पाप क्रिया का नाम मिथ्यात्व असयम और कपाय कहा है। देखियेगा मिथ्यात्व, असयम, कपाय के अभाव को चारित्र कहा
[धवल पु० ६ पृष्ठ ४०] (अ) चौथे गुणस्थान मे मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषाय की निवृत्ति होती है तभी चारित्र की कणिका प्रगट होती है और चारित्र गुण से सिखा फूटती है तब वहाँ धारा प्रवाहरूप से मोक्षमार्ग की तरफ चलता है, चारित्र गुण की शुद्धता के द्वारा चारित्र गुण निर्मल होता है और