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( १३४ ) ‘और अज्ञानी सयमी देखने में आता है, ऐसी नही मानना चाहिए, क्योकि सयमरूपी कार्य का कारणभूत सम्यग्दर्शन है ओर जहाँ सम्यग्दर्शन का अभाव होता है वहाँ भातसयम कभी नही होता है और द्रव्यसयम हो तो वह अज्ञान की और बध की पद्धति मे है।
(धवल पुस्तक १ पृष्ठ १७५, पृष्ठ ३७८) (ए) श्रद्धान वह सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व चारित्र का कारण है। जहाँ कारण न होय, तहाँ भाव चारित्र (भाव सयम) प्रकट होय ही कहाँ से । जीव ने अनन्तबार द्रव्य सयम धारण किया और मसार बढाया और अब मनुप्यभव पा करके भी ऐसा ही करे, तो ससार वृद्धिगत होता है। सभ्यग्द ष्टि सदा रागवर्जक है, जबकि मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा द्रव्य सयमी रागवर्धक है।
(समयसार, छहढाला, रत्नकरण्डश्रावकाचार) इस प्रकार द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग के वीतरागी शास्त्रो मे एक ही सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
प्रश्न-चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन होने पर जीव ने मोक्षमार्ग ग्रहण किया है, ऐसा कहलाया जाएगा या नहीं ?
उत्तर-कहलाया जायेगा, क्योकि सम्यग्दर्शन होने पर जीव को आत्मस्वरूप की प्राप्ति, आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति अथवा आत्मा के गुणीभूत स्वभाव की प्राप्ति होती है । इससे पूर्ण स्वभाव की प्राप्ति १४वे गुणस्थान मे परमात्मा को होती है-उसी जाति की प्राप्ति चौथे गुणस्थान मे अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि को होती है।
(ए) भगवान का लघनन्दन चौथा गणस्थानधारी जीव शिवमार्ग मे केली करता है। निज पर का विवेक होने से मोक्षमार्ग मे आनन्द करता है, सुख भोगता है । अरहत देव का लघुपुत्र होने से थोडे काल मे ही अरहत पद प्राप्त करता है। मिथ्यादर्शन का नाश होने से निर्मल सम्यग्दर्शन प्रगट हआ है ऐसे सम्यग्दष्टि जीवो को आनन्दमय