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( १३३ ) चारित्र भी नही होय । सम्यक्त्व विना जो ज्ञान है वह कुज्ञान है और चारित्र है वह कुचारित्र है। तव सम्यक्त्व विना ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं, तव स्थिति कहाँ से होवे ? और ज्ञान-चारित्र की वृद्धि कैसे होवे ? और ज्ञान-चारित्र का फल सर्वज्ञ परमात्मापना कैसे होय ? इसलिए सम्यक्त्व विना सत्य श्रद्धान ज्ञान-चारित्र कभी भी नही होता है। [रत्नकरण्डथावकाचार श्लोक ३२ की टीका,से]
(आ) सम्यक्त्व सहित अल्प हूँ शुभभाव, अल्पज्ञान, अल्प चारित्र, अल्प तप इस जीव को कल्पवासी इन्द्रादिकनि मे उपजाय जन्म-मरण के दुख रहित परमात्मा कर देता है । और सम्यक्त्व बिना बहुत शुभभाव हो, ११ अगह पूर्व का पाठो हो, शुल्कलेश्या हो, घोर तप करे, तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिप मे तथा अल्प ऋद्धिधारी कल्पवासीनि मे उत्पन्न होकर फिर चारो गतियो मे भ्रमण करता हुआ निगोद को चला जाता है । इसलिए सम्यक्त्व सहित हो ज्ञान, चारित्र, तप धारण करना जीव का कल्याण है। [आत्मानुशासन श्लोक १५ की टीका से]
तथा [रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ३२ पृष्ठ ६२] (ड) सर्वज्ञदेव ने शिष्यो को ऐसा उपदेश दिया है कि जैसेमन्दिर की नोव तथा वृक्ष की जड होती हैं वसे चारित्र धर्म है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है । "दसण मूलो धम्मो"। (दशनपाहुड गाथा २)
(ई) सम्यग्दर्शन बिना धर्मरूपी महल का वृक्ष होता ही नही। अर्थात् जैसे-जड के बिना वृक्ष नही, नीव के विना मन्दिर नही, तैसे सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान-चारित्र धर्म नहीं है।
द्रव्यानुयोग का यह कथन चरणानुयोग के साथ मेल वाला है। (उ) “दसण भूमिह वाहिरा, जिय वयरू क्खण हुन्ति"
अर्थ-हे जीव सम्यग्दर्शन भूमि के बिना, व्रतरूपी वृक्ष नही होता है। यहाँ पर भी चारित्र का मूल सम्यग्दर्शन कहा है। (योगीन्द्र देवकृत श्रावकाचार) तथा (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३८) (ऊ) सम्यग्दर्शन विता चारित्र होता हैगी की