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मिथ्याज्ञान है, जितना चारित्र है मिथ्याचारित्र है । सम्यग्दर्शन प्राप्त किये विना व्यवहाराभासी, अनादिरूढ, मिथ्यादृष्टि, ससार तत्व ही कहलाता है ।
सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद शुभाशुभ भावरूप कार्य को करता हुआ तद्र ुप परिणमित हो, तथापि अन्तरग मे ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नही है | यदि शरीराश्रित व्रत-सयम को अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होता है | ज्ञानी को सविकल्प परिणाम होता है । [ मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी पृष्ठ २ ]
सम्यक्त्वी के व्यवहार सम्यक्त्व मे वा अन्य काल मे अन्तरग निश्चय - सम्यक्त्व गर्भित है । सदैव गमनरूप ( परिणमनरूप ) रहता है । [ मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी मे पृष्ठ 8 ] तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव अपने स्वभाव का आश्रय लेकर अन्तरात्मा वनकर और क्रम से स्वरूप की स्थिरता करके, श्रेणी माड कर अरहत, सिद्ध दशा प्राप्त कर लेता है ।
४-५-६ गुणस्थान मे निश्चय व्यवहार नम्यक्त्व एक साथ होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
प्रकरण पांचवां
धर्म का मूल चारित्र है, वह ( चारित्र) शुद्ध आत्मा मे प्रवृत्ति, जहाँ राग का अवलम्बन नही है ।
(१) धर्म का मूल
सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है । धर्म का अर्थ चारित्र होता है क्योकि चारित्रधारी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
(अ) जैसे - वीज ही नही, तब वृक्ष कैसे उपजेगा ? और वृक्ष ही नही उपज्या, तब स्थिति किसको होवे ? वृद्धि किसकी होय ? और फल का उदय कैसे होय ? वैसे ही सम्यग्दर्शन नही होवे तव ज्ञान