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नाम व्यवहार निमित्त से इसके तहत श्रद्धान निम्यक्त्व है। इस
( १३१ ) इसलिए यहाँ निश्चय सम्यक्त्व तो है नही और व्यवहार सम्यक्त्व भो आभासमात्र है। क्योकि इसके देव, गुरु, धर्मादिक का श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेश के अभाव को साक्षात् कारण (निमित्त) नही हुआ।" कारण हुए विना उपचार सम्भव नहीं है। इसलिए साक्षात् कारण की अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी इसके सम्भव नही है।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३३३] विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम वह तो निश्चय सम्यक्त्व है क्योकि यह सत्यार्थ सम्यक्त्व का स्वरूप है । सत्यार्थ ही का नाम निश्चय है । तथा विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को कारणभूत (निमित्तभूत) श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है क्योकि कारण मे (निमित्त मे) कार्य का उपचार किया है । सो उपचार ही का नाम व्यवहार है । सम्यग्दृष्टि जीव के देव, गुरु धर्मादिक का सच्चा श्रद्धान है उसी निमित्त से इसके श्रद्धान मे विपरीताभिनिवेश का अभाव है। यहाँ विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व है और देव-गुरु, धर्मादिक का श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है। इस प्रकार सावक को एक ही काल मे दोनो सम्यक्त्व पाये जाते हैं।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३३३] जिसे स्व-पर का श्रद्धान नही है और जिनमत मे कहे, जो देव-गुरुधर्म उन्ही को मानता है वा सप्त तत्वो को मानता है, अन्य मस मे कहे देवादि को नही मानता है, तो इस प्रकार केवल व्यवहार सम्यक्त्व से सम्यक्त्वी नाम नही पाता । (गृहीत मिथ्यात्व का अभाव होने की अपेक्षा से व्यवहार सम्यक्त्व कहा है।)
[मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी पृष्ठ २] परन्तु व्यवहार तो उपचार का नाम है; सो उपचार भी तो तब बनता है जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयादि के कारणादिक हो।
[मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५७] वास्तव में सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना जितना ज्ञान है वह