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( १३० ) प्रश्न-अन्तरात्म अवस्था में ध्यान करने योग्य कौन है ?
उत्तन-त्रिकाली परम पारिणामिक ज्ञायक स्वय जीव ही (द्रव्य ही) ध्यान करने योग्य है । अपना त्रिकाली परमात्म द्रव्य, इस अन्तरात्म अवस्था से कचित् भिन्न है।।
[प्रवचनसार जयसेनाचार्य गा० २३८ की टीका से] अन्तरग और बहिरग दोनो प्रकार के परिग्रह से रहित उत्कृष्ट शुद्धोपयोगी मुनि (१२वे गुणस्थानवर्ती) उत्तम अन्तरात्मा है। अविरत सम्यग्दृष्टि (चौथे गुणस्थानवर्ती) जघन्य अन्तरात्मा है। उक्त दोनो की मध्य दशावर्ती देशवती श्रावक और मुनिराज (पांचवे से ११३ गुणस्थान तक) मध्य अन्तरात्मा है । [नियमसार गा० टीका १४६]
(१४) तात्पर्य यह है कि ४-५-६ गुणस्थानो मे निश्चय सम्यग्दर्शन सहित व्यवहार सम्यक्त्व होता है। इन गुणस्थानो मे जो जो शुद्धि है वह सवर-निर्जरारूप है और मोक्ष का कारण है और जो भूमिकानुसार राग है वह अल्प स्थिति अनुभागरूप घातिकर्म वध का निमित्त कारण है, परन्तु अनन्त ससार का निमित्त कारण नहीं है।
सम्यग्दर्शन प्राप्त किये विना जुदा नव तत्वो का जानना मिथ्यादृष्टिपना है। कलश ६ मे नव पदार्थो का जानना मिथ्यात्व कहा है।
(१५) वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्य का निज भाव द्रव्य के साथ ही रहता है तथा निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है, इसलिए शुद्धनय से जीव को जानने से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। जव तक भिन्न-भिन्न नव पदार्थों को जाने और शुद्धनय से आत्मा को न जाने तब तक पर्याय बुद्धि है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि है।
[समयसार गा० १३ के भावार्थ मे से पृष्ठ ३३] (१६) इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना व्यवहार सम्यग्दर्शन लागू नही पड़ता है।
मिथ्यादृष्टि जीव के देव-गुरु-धर्मादिक का श्रद्धान आभासमात्र होता है और इसके श्रद्धान मे विपरीताभिनिवेश का अभाव नही होता