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( १२८ ) अनुसार परिणति है वह निश्चय सम्यक्त्व है और चारित्र मोहनीय क्षयोपशम के अनुसार जो परिणति है वह निश्चय चारित्र है।)
[प्रवचनसार गा० १५० की टीका] (१०) जो सम्यक्त्व कहा है वह चौथे गुणस्थान से १४वे गुणस्थान तक का वर्णन होने से निश्चय सम्यग्दर्शन है । क्योकि निश्चय सम्यक्त्व के साथ रहने वाला व्यवहार सम्यक्त्व सातवे गुणस्थान से आगे नही होता है।
यहाँ पर निश्चय सम्यक्त्व को परमार्थ, भूतार्थ, शुद्ध, निर्मल, पवित्र, आभ्यन्तर, अनुपचार सत्यार्थ सम्यग्दर्शन कहा है और व्यवहार सम्यत्व को अपरमार्थ, अभूतार्थ, अशुद्ध, अपवित्र, अनिर्मल, बाह्य, उपचार, असत्यार्थ सम्यक्त्व कहा है।
निश्चय सम्यग्दर्शन का आश्रय शुद्ध आत्मा है और व्यवहार सम्यक्त्व का आश्रय जीवादि नव पदार्थ है।
[समयसार गा० २७६-२७७] व्यवहार सम्यग्दर्शन पराश्रित होने से जिनवरो ने उसे हेय, त्याज्य, बध का कारण कहा है, क्योकि वह दूसरे के आश्रय से होता है। ज्ञानियो को अस्थिरता सम्बन्धी विकलल्प छोडने का पुरुषार्थ वर्तता है।
(११) प्रश्न-४-५वें गुणस्थान में सम्यग्दष्टि को किसी-किसी समय अशुभभाव व्यक्तरूप होता है और शुभभाव भी सदा एक प्रकार का नहीं होता, तो उस काल सम्यग्दृष्टि के व्यवहार सम्यक्त्व का घया हुआ?
उत्तर-उस सयय वह व्यक्तरूप ना होकर शक्तिरूप होता है और जब होता है तब व्यक्त रूप होता है।
(शक्ति व्यक्ति का स्वरूप पचास्तिकाय गा० ४६ मे ज्ञान पर्याय के सम्बन्ध में दिया है। और इष्टोपदेश से राग द्वेप की शक्ति, व्यक्ति के विषय मे लिखा है।