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________________ ( १२७ ) " वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि पदार्थों सम्बन्धी सम्बद्धान तथा ज्ञान गृहस्थो और तपोधन को समान होता है । चारित्र तपोधनो को आचारादि चरणग्रन्थो मे विहित किये हुए मार्ग अनुसार प्रमत्त, अप्रमत्त गुणस्थान योग्य पच महाव्रत-पच समिति - त्रिगुप्ति आदिरूप होता है और गृहस्थो को उपासकाध्ययन ग्रन्थ मे विहित किये हुए मार्ग अनुसार पंचम गुणस्थान योग्य दान शील- पूजा आदिरूप होता है इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है । [पचास्तिकाय गा० १६० जय सेनाचार्य कृत ] यहाँ श्रावक और मुनि को निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग साथ-साथ होता है ऐसा बताया है । वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि पदार्थों का सम्यक् श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यह व्यवहार सम्यक्त्व की व्याख्या जयसेनाचार्य जी ने की है । साथ-साथ व्यवहारज्ञान और व्यवहार चारित्र भी लिखा है । (८) "विपरीत अभिविनेश रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।" [नियमसार गा० ५१] ( 2 ) प्रवचनसार गा० १५७ मे क्षायोपशमिकसम्यक्त्व और क्षायोपशमिक चारित्र, ५-६ गुणस्थान मे शुद्धरूप है उसके साथ उसी समय वर्तता व्यवहार श्रद्धा शुभोपयोग साथ रहता है । "वशिष्ट (खास प्रकार की ) क्षयोपशम दशा मे रहा हुआ दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीयरूप पुद्गलो के अनुसार परिणति मे लगा हुआ होने के कारण शुभ उपराग ग्रहण करने से जो उपयोग परम भट्टारक महादेवाधिदेव परमेश्वर ऐसे अरहत और सिद्ध की और साधु की श्रद्धा करने मे तथा समस्त जीव समूह की अनुकम्पा का होना वह शुभोपयोग है" (यहाँ पर देव गुरु की श्रद्धा व्यवहार सम्यक्त्व है और इसे शुभोपयोग कहा है । क्योकि वह चारित्र मोहनीय के उदय के साथ जुडा हुआ है । जो दर्शनमोह के क्षयोपशम के
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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