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( १२६ ) नही, क्योकि चौथे गुणस्थान मे सम्यग्दर्शन होने पर विपरीत अभिनिवेश का अभाव ही होता है ।
जीवादि नव पदार्थो का विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। उन पदार्थो मे भूतार्थ द्वारा अभिगत पदार्थो मे शुद्धात्मा का भिन्नरूप से सम्यक् अवलोकन करना सम्यग्दर्शन है ।
[समयसार जयसेनाचार्य गा० १५५] (५) निज तत्व मे जिसका मार्ग विशेषरूप से हुआ है ऐसे जीवो __ को व्यवहार सम्यग्दर्शन होता है।
"काल सहित पचास्तिकाय के भेदरूप नव पदार्थ, वे वास्तव मे "भाव" है । उन "भावो का" मिथ्यादर्शन के उदय से प्राप्त होने वाला जो अश्रद्धान उसके अभाव स्वभाव वाला जो भावान्तर (नव पदार्थों के श्रद्धान रूप भाव) श्रद्धान, वह सम्यग्दर्शन है।
[पचास्तिकाय गा० १०७ की टीका से] यह छठे गुणस्थान धारी तीन चौकडी कपाय के अभावरूप परिणमे हुए भावलिंगी मुनि के व्यवहार सम्यग्दर्शन की व्याख्या है। यह चौथे, पाँचवे गुणस्थानधारी जीवो को भी निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ रहा हुआ व्यवहार सम्यग्दर्शन इसी प्रकार लागू पडता है ।
(६) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सो मोक्षमार्ग है ऐसा निश्चय कहा तथा वहाँ छह द्रव्यरूप और नव पदार्थरूप जिनके भेद हैं ऐसे धर्मादि के तत्वार्थ श्रद्धानरूप भाव जिसका स्वभाव है ऐसा 'श्रद्धान' नाम का भाव विशेष सो सम्यक्त्व है।
[पचास्तिकाय गा० १६० की टीका से] ऊपर गा० १६० की टीका मे छठे गुणस्थानवर्ती को मिथ्यात्व तथा तीन चौकडी कषाय के अभावरूप परिणत भावलिंगी मुनि की शुद्धि के साथ वर्तता हुआ व्यवहार सम्यक्त्व का वर्णन किया है।
(७) पचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ को भी व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है । वहाँ व्यवहार मोक्षमार्ग के स्वरूप का निम्न वर्णन किया है