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________________ ( १२५ ) मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा को निश्चय सम्यग्दर्शन; सच्चा श्रावकपना, सच्चा मुनिपना होता ही नहीं, इसलिए उसको व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार श्रावक, व्यवहार मुनिपना भी नही होता है । क्योकि निश्चय के बिना व्यवहार कैसा ? अर्थात् निश्चय के बिना व्यवहार होता ही नहीं है। (३) भूमिकानुसार साथ-साथ रहने वाला निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन की व्याख्या "जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । व्यवहारात-निश्चयतः, आत्मैव भवति सम्यक्त्वम् ॥२०॥ अर्थ-जीव आदि कहे हुए जो पदार्थ उनकी श्रद्धा वह व्यवहार सम्यक्त्व जिनवर ने कहा है। निश्चय से अपना आत्मा वह ही सम्यक्त्व है । निश्चय सम्यक्त्व का विषय निज आत्मा है और व्यवहार सम्यक्त्व का विषय निज आत्मा नही, परन्तु उनसे जुदा विषय अर्थात जीवादि नव पदार्थ हैं। [दर्शनपाहुड श्लोक २०] स्वाश्रितो निश्चय-पराश्रितो व्यवहार । [समयसार गा० २७२] (१) आत्मा के श्रद्धा गुण मे सम्यक्त्व प्राप्ति के साथ एक चौकडी कपाय के अभावरूप शुद्धि निश्चय सम्यग्दर्शन, भूमिकानुसार देव गुरु, शास्त्र का राग व्यवहार सम्यग्दर्शन है। (२) दो चौकडी कषाय के अभावरूप शुद्धि निश्चय श्रावकपना है १२ और अणुव्रतादि का विकल्प व्यवहार श्रावकपना है । (३) तीन चौकडी कषाय के अभावरूप शुद्धि निश्चय मुनिपना है और २८ मूलगुण का विकल्प व्यवहार मुनिपना है। प्रश्न-व्यवहार कब कहा जावेगा? उत्तर-व्यवहार निश्चय को बताये तो व्यवहार है। जैसे-सोने मे जो खोट है वह यह बताता है, मैं सोना नही हूँ, उसी प्रकार भूमिकानुसार जो राग है उस पर व्यवहार का आरोप आता है वह निश्चय को बतलाने मात्र है तब व्यवहार है। (४) ज्ञानी को व्यवहार सम्यग्दर्शन मे विपरीत अभिनिवेश होता
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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