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________________ ( १२४ ) दृष्टि को व्यवहारपना होता ही नही, क्योंकि निश्चय हो तो व्यवहारपना नाम पावे | (२) साधक अन्तरात्मा को एक साथ साधक-बाधक कहा है, क्योकि उसको ज्ञानधारा और कर्म धारा एक साथ होती है । Snow चौथे गुणस्थान मे प्रथम निर्विकल्पता आती है तब निश्चय सम्यक दर्शन प्रगट होता है । सविकल्पदशा आने पर निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होते हुए, चारित्र मोह के उदय की कमजोरी के कारण सच्चेदेव, गुरु, शास्त्र सम्बन्धी ही विकल्प होता है कुगुरु आदि का नही । इसलिए सम्यग्दृष्टि के देव - गुरु-शास्त्र के शुभो - पयोग को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है, क्योकि व्यवहार सम्यग्दर्शनरूप राग क्रम-क्रम से निर्जरा को प्राप्त हो जाता है । । पाँचवाँ गुणस्थान भी निर्विकल्प दशा मे प्राप्त होता है । सविकल्प दशा आने पर दो चौकडी कषाय के अभावरूप शुद्धि तो निरन्तर वर्तती है उसके साथ बारह अणुव्रतो का विकल्प होता है अन्य प्रकार का नही । इसलिए देशचारित्र श्रावक के १२ अणुव्रतादि को व्यवहार श्रावकपना कहा है, क्योकि अणुव्रतादि का राग क्रम-क्रम से निर्जरा को प्राप्त हो जाता है । पाँचवें गुणस्थान से प्रथम सातवे गुणस्थान मे आता है तब तो निर्विकल्पता होती है । छठे गुणस्थान मे सविकल्पदशा होती है वहाँ पर भावलिंगी मुनि को तीन चौकडी कषाय के अभावरूप शुद्धि तो निरन्तर वर्तती है और उसके साथ सज्वलन क्रोधादि का तीव्र उदय होने से अर्थात् अपनी कमजोरी से २८ मूलगुण सम्बन्धी ही विकल्प आता है, अन्य नही । इसलिए भावलिंगी मुनि के २८ मूलगुण आदि के विकल्प को व्यवहार मुनिपना कहा है क्योकि व्यवहार मुनिपने का राग क्रम-क्रम से निर्जरा को प्राप्त हो जाता है। सातवे गुणस्थान से इस प्रकार का राग होता नही है अबुद्धि पूर्वक राग की बात यहाँ गौण है | 4
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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