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( १२३ ) प्रदक्षिणाये देकर अपनी स्त्रियो के साथ वालक के उस चरम शरीर को नमस्कार किया।"
इसमे राजा प्रतिसूर्य ने सम्यग्दृष्टि हनुमान बालक की तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया, तव सम्यग्दृष्टि पूजने योग्य है ऐसा प्रथमानुयोग का शास्त्र बताता है। (४६) सम्यग्दृष्टि कसा जानता है कि
कहै विच्छन पुरुष सदा में एक हौं। अपने रस सौ भयो आपनी टेक हौं । मोह कर्म मम नाहि म कूप है।
शुद्ध चेतना सिन्धु हमारी रूप है ॥३३॥ अर्थ-ज्ञानी पुरुप ऐसा विचार करता है कि मैं सदैव अकेला हूँ, अपने ज्ञान-दर्शन रस से भरपूर अपने ही आश्रय से हूँ। भ्रमजाल का कूप मोह कर्म मेरा स्वरूप नही है, नहीं है। मेरा स्वरूप तो शुद्ध चैतन्य सिन्धु है ।।३३।।
[समयसार नाटक जीव द्वार] समयसार द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग सनशास्त्र एक आवाज से सम्यग्दृष्टि की वदना करने को कहते हैं ।
प्रकरण चौथा-निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्पष्टीकरण
(१) सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है। वह परमात्मा नही और बहिरात्मा भी नही । परमात्मा और बहिरात्मा को व्यवहार नही होता है, क्योकि वीतराग परमात्मा को राग नही, कुछ वाधकपना नही है।
जिसको अशरूप से शुद्धि प्रगट हुई है उसे भूमिकानुसार वाधकपना होता है। यहाँ उस वाधकपने को व्यवहार कहा है और जो शुद्धि प्रगटी है उसे निश्चय कहा है। क्योकि सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र गुण की पर्याय मे दो अश हो जाते हैं वहाँ जितनी शुद्धि होती है वह मोक्षमार्ग है और जो अशुद्धि है वह वन्धमार्ग है।
मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा को सम्पूर्ण वाधकपना है इसलिए मिथ्या