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है ।
दर्शन रत्न जो परिणति सम्यग्दर्शन को धारण करता है वह रत्नत्रय मे सार उत्तम गुण को धारण करता है वह मोक्ष का प्रथम सोपान [दर्शन पाहुड सूत्र २१ ] परम्परा को प्राप्त होता दर्शनपाहुड सूत्र ३१] जिन प्रणीत जीव- अजीव
[
जीव विशुद्ध सम्यग्दर्शन से कल्याण की
है ।
हेय उपादेय सम्यग्दृष्टि ही जानता है । आदि का बहुविधि अर्थ है । उसमे जो हेय - उपादेय को जानता है वह ही सम्यग्दृष्टि है ।
[ सूत्रपाहुड गा० ५ ] ( ४१ ) केवली - सिद्ध भगवान रागादि रूप नही परिणमते, ससार अवस्था की इच्छा नही करते यह श्रद्धान का बल जानना । [मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ३२४] (४२) सम्यवत्व गुण, तियंच आदिक और केवली सिद्ध भगवान को सम्यक्त्व गुण समान ही कहा है। [ मोक्षमार्ग प्रकाशक १०३२४ ] (४३) सम्यग्दर्शन रत्न अर्घ है जिस जीव को विशुद्ध सम्यग्दर्शन है वह परम्परा कल्याण को प्राप्त करता है वह सम्यग्दर्शन रत्न लोक मे सुर-असुर द्वारा पूज्य है ।
[ दर्शनपाहुड तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार ] देव और दानवों से युक्त इस संसार मे सम्यग्दर्शन सर्व द्वारा पूजने आता है । इस रत्न का मूल्य कोई भी करने को समर्थ नही । [ अष्टपाहुड महावीरजी से प्रकाशित पृ० ४४ ] (४४) सम्यक्त्व परिणत जीव सम्यक्त्व है । अतः द्यानतराय जी कृत सम्यग्दर्शन की अष्टद्रव्य सहित पूजा, सम्यग्दृष्टि जीव को लागू होती है । तथा बनारसीदास जी ने समयसार नाटक में सम्यग्दृष्टि को वन्दन किया है ।
(४५) सम्यग्दृष्टि नमस्कार के योग्य है
पद्मपुराण मे लिखा है कि "निश्चित ही इसका यह शरीर अन्तिम शरीर हैं ऐसा जानकर उसने, हस्त-कमल शिर से लगा, तथा तीन