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उपशम सम्यक्त्व होता है, क्षय से क्षायिक होता है ओर क्षयोपशम से क्षायोपशमिक (वेदक ) सम्यक्त्व होता है । इन तीनो का एकत्व ही उसका नाम सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि यह तीनो भाव सम्यग्दृष्टियो के ही होते है | [ धवल पु० ७ पृ० १०७ ] ( ३६ ) क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ है। [धवल पु० ५ पृ० २६४] इस पंचम काल मे भरत क्षेत्र मे जन्मा हुआ जीव क्षायिकसम्यक्त्व प्रगट करे, ऐसी योग्यता किसी जीव को नही । ऐसा त्रिकाल सर्वज्ञदेव के ज्ञान में आया है । अहो सर्वज्ञ का अद्भुत सर्वज्ञपना ।
( ३७ ) ज्ञान जीव को सारभूत है और ज्ञान की अपेक्षा सम्यक्त्व सारभूत है, क्योकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और चारित्र से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
(३८) सम्यक्त्व से ज्ञान होता है उपलब्धि होती है और वह जीव अपने विशेष अन्तर भेद जानता है ।
[ दर्शनपाहुड गा० ३१] [ धवल पु० १ पृ० १७७] और ज्ञान से समस्त पदार्थों की कल्याण का और अकल्याण का [ दर्शन पाहुड गा० १५] ज्ञान ज्योति प्रगट होती है । [पचास्तिकाय गा० ७० ] जैसी द्रव्यानुयोग और करणानुयोग मे सम्यक्त्व की महिमा बतलायी है उसी तरह से चरणानुयोग के शास्त्रो मे भी बतलायी है ।
( ३९ ) तीन काल और तीन लोक मे सम्यग्दर्शन के समान कोई हितकारी नही । और मिथ्यात्व के समान कोई अहितकारी नही ।
[ रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० ३४ ] (४०) जिस पुरुष को सम्यक्त्वरूप जल का प्रवाह निरन्तर प्रवर्तता है उसे कर्मबन्ध नही होता । उसको कर्मरज का आवरण लगता नही और पूर्व वँधा हुआ कर्म नाश को प्राप्त होता है ।
[ दर्शनपाहुड सूत्र ७ ]