________________
( १२० ) आश्रय है ऐसा जो समयसार गा० २७६.२७७ मे कहा है उसी प्रकार जो सिद्धान्त समयसार की ११वी गाथा मे कहा है, वह ही वन्ध अधिकार मे लगाना चाहिए।
(३२) शुद्ध आत्मा ही दर्शन (सम्यक्त्व) का आश्रय है, क्योकि जीवादि नव पदार्थो के सद्भाव मे या असद्भाव मे उसके (शुद्ध आत्मा के) सद्भाव से ही सम्यकदर्शन का सद्भाव है। अवन्ध आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन है।
[समयसार गा० २७६-२७७ की टीका से] (३३) क्योकि दर्शनमोहनीय देशघाती प्रकृति का उदय रहने पर भी जीव को एकदेश स्वभावरूप रहने मे कोई विरोध नही है ।
[धवल पुस्तक १ पृष्ठ ३९८] __ यहाँ पर बतलाया है कि चौथे गुणस्थान से १४वें गुणस्थान तक जीवो को सम्यग्दर्शन स्वभावरूप अवस्था है उसी से आत्मा का ज्ञायक स्वभावपना प्रकट होता है।
ज्ञान वह अभेदनय से आत्मा ही होने से उपादेय है अन्य सव हेय है। इस प्रकार वीतरागी शास्त्रो मे चाहे वह करणानुयोग हो या द्रव्यानुयोग हो कोई भी किसी मे विरोध नही है ।
(३४) कदो दसण मोहोदये सति जीव गुणीभूत सदहणस्स उत्तिएउवलय" । अर्थ-क्योकि दर्शनमोहनीय होने पर (सम्यक् प्रकृति का उदय होने पर भी) जीव को गुणीभूत श्रद्धा की उत्पत्ति की प्राप्ति होती है। (यहाँ पर श्रद्धा से जीव को गुणीभूत कहा- इसलिए सिद्ध हुआ कि जीव को त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से इस गुणीभूत की श्रद्धा उत्पन्न होती है पराश्रय से कभी नहीं। धवल पुस्तक ७ पृष्ठ २३८ मे लिखा है कि बाह्य स्थिति ऊपर" अवलम्बित नही है।
(३५) चौथे गुणस्थान से १४वे गुणस्थान तक सम्यक्त्व का एकत्व है। इस सम्बन्ध मे कहा है कि दर्शनमोहनीय के उपशम से