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सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । "भूतार्थ आश्रित आत्मा, सदृष्टि निश्चय होय है ।"
[ समयसार गाथा ११]
२८. शुद्ध का अर्थ क्या है
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नहि अप्रमत्त, प्रमत्त नहि जो एक ज्ञायक भाव है । इस रोति शुद्ध कहाय अह, जो ज्ञाक वो तो वो हि है ॥ ६ ॥ अर्थ - जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नही ओर प्रमत्त भी नही है । इस प्रकार इसे शुद्ध कहने हैं और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो वही है, अन्य कोई नही । ज्ञायक भाव प्रमत्त भी नहीं, वह तो समस्त अन्य द्रव्यो के उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है ।
अप्रमत्त भी नही, और भावो से भिन्न रूप से
[ समयसार गा० ६ ]
एक तो द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय अपेक्षा शुद्धपना है ।। वहाँ द्रव्य अपेक्षा तो पर द्रव्य से भिन्नपना और अपने गुणो से अभिन्नपना उसका नाम शुद्धपना है ओर पर्याय अपेक्षा औपाधिक भावो का अभाव होना शुद्धपना है । [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० १६६ ] ' (२९) आत्मा ही शरण होने से आत्माश्रित निश्चयनय है पराश्रित व्यवहारनय है । ऐसा कहकर पराश्रित भाव छुडाया है और आत्माश्रित को ग्रहण कराया है। जीव को अनादि से जो पराश्रय से मेरा भला होगा ऐसी खोटी मान्यता को छुडाकर ध्रुव ज्ञायक त्रिकाली स्वभाव का आश्रय कराया है । अबन्धभाव आत्माश्रित है और बन्ध-भाव पराश्रित है ऐसा बताया है।
[ समयसार गा० २७२ संस्कृत टीका से ] (३०) आत्मा ही एकमात्र शरण होने से वह ही दर्शन -ज्ञानचारित्र आदि है अर्थात् उसके आश्रय से ही अबन्धदशा प्रगट होती है और पराश्रय से बन्ध होता है ।
[ समयसार गा० २७६-२७७ को टीका से ] (३१) शुद्ध आत्मा ही दर्शन है, क्योकि वह ( आत्मा ) दर्शन कह