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( ११८ ) (२३) सम्यक्त्व अमूल्य माणिक्य समान है। जो जीव निरन्तर सम्यक्त्व का ध्यान करते हैं, चितवन करते है, वारम्बार भावना करते हैं, वह निकट भव्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्व रूप परिणमित जीव दुखदायी माट कर्मों को क्षय करता है। कर्म के क्षय का प्रारम्भ सम्यग्दगंन से ही होता है । इस पूर्ण प्रयत्न से सर्व प्रथम उसको ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। [मोक्षपाहुड गा० ८७ सस्कृत टीका हिन्दी महावीरजी से प्रका
शित अप्टपाहुड पृ० ५७५] (२४) वारम्बार सम्यग्दर्शन के महात्म्य का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज कहते है कि "अधिक कहने का क्या प्रयोजन ? अतीतकाल में जितना भरत, सगर, राम, पाडव आदि श्रेष्ठ भव्य जीवो ने मोक्ष प्राप्त किया, तथा भविष्य काल में मोक्ष प्राप्त करेगा और वर्तमान मे करता है वह सम्यग्दर्शन का महात्मय है।"
[मोक्षपाहुड गाथा ८८ अप्टपाहुइ प्रकागित महावीरजी पृ ५७७]
(२५) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप यह चारो आत्मा मे स्थित है इसीलिए आत्मा हो मेरे शरण है।
[मोक्षपाहुड गा० १०४ अप्टपाहुड महावीरजी पृ ५६२] (२६) आत्मा ही आत्मा की श्रद्धा करता है, आत्मा ही आत्मा का ज्ञान करता है, आत्मा ही आत्मा के साथ तत्मयपने का भाव करता है। आत्मा ही आत्मा मे तपता है । आत्मा ही आत्मा मे केवलज्ञानरूप ऐश्वर्य को प्राप्त करता, इसी प्रकार चार प्रकार से आत्मा ही आत्मा की आराधना करता है इसलिए आत्मा ही मेरे शरण है। [मोक्षपाहुड गा० १०५, अष्टपाहुड महावीरजी
से प्रकाशित पृ० ५९२] (२७) आत्मा ही मेरा शरण है ऐसा निर्णय करने वाला जीव सदाकाल भूतार्थ का आश्रय करता है और उसके आश्रय से ही