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________________ ( ११७ ) तक स्वभाव भूत अवस्था प्राप्त होती हैं । [ धवल पु० १ पृ० ३६६ ] (१६) १४ वे गुणस्थान मे निश्चय सम्यग्दर्शन ही होता है । चौथे गुणस्थान से स्वभावरूप अवस्था शुरू होती है, इसलिए सर्वत्र श्रद्धा गुण की स्वभावरूप अवस्था शुद्ध सम्यग्दर्शन है । [ धवल पु० १पृ० ३६६, ३६७] ( १७ ) मेरु समान निष्कम्प आठ मल रहित, तीन मूढताओ से रहित और अनुपम सम्यग्दर्शन परमागम के अभ्यास से होता है । [ धवल पु० १५०५६ ] (१८) सम्यग्दर्शन रत्नागिरि का शिखर है । [ धवल पु० १५० १६६] ( १९ ) जो पुरुष सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, वही शुद्ध है । जिसका दर्शन शुद्ध होता है वही निर्वाण को प्राप्त करता है, दूसरा नही । निर्वाण प्राप्ति मे वह ( सम्यग्दर्शन ) प्रधान है । [ मोक्षपाहुड गा० ३९ ] ( २० ) यह श्रेष्ठतर सम्यग्दर्शन ही जन्म-जन्म का नाश करने वाला है । उसकी जो श्रद्धा करता है वह सम्यक्त्वी है । वह सम्यक्त्व मुनियो, श्रावको तथा चतुर्गति के भव्य सज्ञी पचेन्द्रिय जीवो को ही होता है । [ मोक्षपाहुड गाथा ४० महावीरजी से प्रकाशित हुआ अष्टपाहुड पृ० ५२३] (२१) जैसे तारो के समूह मे चन्द्रमा अधिक है, पशुओ के समूह मे सिंह अधिक है, उसी प्रकार मुनि और श्रावक दोनो प्रकार के धर्म मे सम्यक्त्व, वह अधिक है । [ भावपाहुड गाथा १४४ जयचन्द्र वचनिका पृ० २६८ ] (२२) प्रश्न - श्रावक को क्या करना ? उत्तर - प्रथम श्रावक को सुनिर्मल मेरुवत् निष्कम्प अचल तथा चल मलिन अगाढ दोष रहित अत्यन्त निश्चल सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके उसके ध्यान मे देख क्षय के लिए ध्यावना | [ मोक्षपाहुड गा० ८६ ]
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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