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________________ ( ११६ ) तो भी वह ससार स्थिति का छेदक होता है। इसलिए मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उसे अवन्धक कहने मे आया है । [ समयसार पृ० १३३, ३०६, ३०७, २६१] [ गोमट्टसार कर्मकाण्ड गा० ६४ ] (१३) द्रव्यानुयोग तथा करणानुयोग का तीनो काल सुमेल होता है । दोनो वीतरागी शास्त्र है । उनमे विरोध जरा भी नही । उनका समन्वय आगे इस प्रकार है सिद्धान्त मे गुणस्थानो की परिपाटी मे चारित्र मोह के उदय के निमित्त से सम्यग्दृष्टि के जो बन्ध होता है वह भी निर्जरारूप ही समझना चाहिए। क्योकि सम्यग्दृष्टि के जैसे पूर्व मे मिथ्यात्व के उदय के समय बंधा हुआ कर्म खिर जाता है, उसी प्रकार नवीन बधा हुआ भी खिर जाता है। उसके उस कर्म के स्वामित्व का अभाव होने से वह आगामी वधरूप नही, किन्तु निर्जरारूप ही है । x X X ज्ञानी द्रव्य कर्म को पराया मानता है, इसलिए उसे उसके प्रति ममत्व नही होता अत उसके रहते हुए भी वह निर्जरित हुए के समान ही है ऐसा जानना । [ समयसार गाथा २३६ का भावार्थ पृ० ३५५ ] सम्यग्दृष्टि को कर्म का उदय वर्तता होने पर भी, सम्यग्दृष्टि को पुन कर्म का बध किंचित मात्र भी नही होता, परन्तु जो कर्म पहिले बधा था । उसके उदय को भोगने पर उसको नियम से उस कर्म की निर्जरा ही होती है । [ समयसार कलश १६१ पृ० ३४६ ] (१४) धवल मे भी इस कथन से कोई विरोध नही आता । धवल मे लिखा है - जीव के रागादि परिणामो के निमित्त से पुद्गल कर्म रूप परिणमाता है । परन्तु ज्ञान परिणत है, उसको जो अल्प स्थिति तथा अनुभागवाली कितनी कर्म प्रकृतियां बधने पर भी, उसका स्वामी न होने से वह कर्म को प्राप्त नही होता । [ धवल पुस्तक १ पृ० १२] (१५) सर्व सम्यग्दृष्टियो को चौथे गुणस्थान से १४वें गुणस्थान
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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