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( ११५ ) आस्रव अशुचि, अपवित्र, जड स्वभावी, दुःख का कारण, लाख के समान, अनित्य, अध्र व, अशरण, वर्तमान मे दुखरूप और आगामी दुखस्वरूप है और भगवान आत्मा तो सदा ही अति निर्मल, चैतन्यस्वभावी, विज्ञानधन स्वभावी, निराकुल स्वभावी, नित्य, ध्रुव, शरण वर्तमान मे सुखस्वरूप और आगामी मे सुखस्वरूप है।
[समयसार गा० ७२, ७४ की टीका से] (८) सम्यक्त्व प्राप्त करने वालो ने सन्मार्ग ग्रहण किया है । देव तथा नारकी जीवो मे चतुर्थ गुणस्थान ही होता है, ऊपर के गुणस्थान वहाँ नही हो सकते है । देव नारकी अज्ञान दशा मे विभग ज्ञानी होते हैं और जब सम्यक्त्व प्रगट करते हैं, तब सन्मार्गी होते हैं।
[धवल पुस्तक ७ पृ० २१६] (६) सम्यक्त्व का फल निश्चय चारित्र है । और निश्चय चारित्र का फल केवलज्ञान तथा सिद्ध दशा है। जो जीव चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करता है, वह नियम से सिद्ध होगा ही। इससे वह भावि नैगमनय से सिद्ध है।
(१०) अनादि होने से आस्रव नित्य नहीं हो जाता, क्योकि काटस्थ अनादि को छोडकर प्रवाह अनादि मे नित्यत्व नही पाया जाता। यदि प्रवाह रूप से अनादि होय तो उसको (मिथ्यात्व) नित्यपना प्राप्त नही होता है।
[धवल पुस्तक ७ पृ० ७३] (११) सम्यग्दृष्टि को आप्त, आगम तथा पदार्थों को श्रद्वा होती है मिथ्यादृष्टि को उसकी श्रद्धा नहीं होती। भले दया धर्म को जानने वाला (बातें करने वाला) ज्ञानी कहलाता हो उसका ज्ञान, श्रद्धा का कार्य करता नहीं, इसलिए मिथ्या है। [धवल पुस्तक ५ पृ० २२४]
(१२) चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करने से जीव को सम्यक्त्व प्राप्त होता है वहाँ उस,गुणस्थानी जीव को ४१ प्रकृतियो का वन्ध नही होता तथा और प्रकृतिया की स्थिति और अनुभाग अल्प बॉधता है,