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घनस्वरूप निज स्वरूप का अवलम्बन, उसमे स्थिरता, करने के लिए कहा है ।
स्वभाव का अवलम्बन लेना और बाह्य का अवलम्बन छोडना ऐसा २३ नम्बर में कहा जा चुका है ।
(ठ) इसलिये जिसमे भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्म स्वभावभूत एक ज्ञान का ही अवलम्वन करना चाहिए । उसके अवलम्बन से ही निजा पद की प्राप्ति होती है, भ्रान्ति का नाश होता है, आत्मा का ( जीव का लाभ होता है, और अनात्मा ( अजीव ) का परिहार होता है; ( ऐसा होने से ) कर्म बलवान नही होते, राग-द्वेष- मोह उत्पन्न नही होते; ( राग-द्वेष- मोह भाव के बिना) पुन कर्मास्रव नही होता, (आत्रत्र के बिना ) पुनः कर्म बन्ध नही होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर निर्जरा को प्राप्त हो जाता है, समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है । ऐसे (आत्मा) के अवलम्बन का ऐसा महात्म्य है ।
( समयसार गा० २०४ टीका पृष्ठ ३१४ )
प्रश्न - क्या सम्यग्दर्शन संयम का अंश है ? उत्तर—हाँ है |
(अ) देशावधि किसे कहते हैं ? उत्तर - देश अर्थात् सम्यग्दर्शन । क्योकि वह सम्यग्दर्शन सयम का अवयव (अश) है |
( आ ) कहूँ शुद्ध निश्चय
( धवल पुस्तक १३ पृष्ठ ३२३ ) कथा, कहूँ शुद्ध व्यवहार । मुक्ति पंथ कारन कहूँ, अनुभव का अधिकार ॥ अर्थ- शुद्ध पर्याय प्रगटी वह सद्भूत व्यवहार है । भूमिकानुसार राग असद्भूत व्यवहार है । त्रिकाली द्रव्य शुद्ध निश्चयनय है ।
( समयसार नाटक ) (इ) सयम का कारण सम्यग्दर्शन है । ( दर्शनपाहुड गा० ३१ ), (ई) निश्चय चारित्र के कारणरूप ज्ञान श्रद्धान है ।
( समयसार गा० २७३ की टीका से ) "