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________________ ( ११२ ) (क) प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव मे स्वय आत्मा ही है, क्योकि परिणामी परिणाम से अभिन्न है। (प्रवचनसार गा० १२२ की टीका से) (ख) पौद्गलिक शब्दब्रह्म, उसकी ज्ञप्ति (शब्दब्रह्म को जानने वाली ज्ञानक्रिया) वह ज्ञान है । श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान तरीके उपचार से कहा जाता है। जैसे अन्न को प्राण कहते है (वैसे शब्द ब्रह्म को ज्ञान कहा जाता है । वह है नही, निमित्तादि की अपेक्षा कथन है)। (प्रवचनसार गा० ३४ की टीका से) इस प्रकार श्री समयसार श्री प्रवचनसार आर धवल पुस्तक १३ मे द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का स्वरूप एक ही प्रकार कहा है । (ग) सर्व जगह परमार्थ है, वही सत्यार्थ है । इसी प्रकार समयसार मे लिखा है, "व्यवहार अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है। द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।" (समयसार गा० ६ का भावार्थ पृष्ठ १७) (घ) व्यवहारनय सव ही अभूतार्थ है, इसलिये वह अविद्यमान, असत्य, अभूत, अर्थ को प्रकट करता है, शुद्धनय एक ही भूतार्थ होने से विद्यमान, सत्य, भूत अर्थ को प्रगट करता है। (समयसार गा० ११ की टोका से) (ड) पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुडाया है और उस व्यवहार को हेय, त्याज्य कहा है तब फिर यह सत्पुरुप एक सम्यक निश्चय को ही निश्चलतया अगीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप निज महिमा मे (आत्मस्वरूप मे) स्थिरता क्यो धारण नही करते ? (समयसार कलश १७३) (ट) धवल पुस्तक १३ पृष्ठ २८२-२८३ मे कहा है, कि द्वादशाग भाव श्रुतज्ञान है, वह आत्मा का परिणाम है-ऐसा कहा । श्रुतज्ञान
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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