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( १११ ) (ऐ) सम्यग्दशन ज्ञान चारित्र रूप परिणित हुई, वही आत्मतत्व मे एकाग्नता है। (प्रवचनसार गा० २३२ को टीका से)
(ओ) यह अमूर्तिक आत्मा वह मैं हूँ और यह समान क्षेत्रावगाही शरीरादिक (द्रव्यकर्म, भाषकर्म, नोकर्म ) वह पर है तथा यह उपयोग वह मैं हूँ ओर यह उपयोग मिश्रित मोह-राग द्वेष भाव, वह पर है । ऐसा स्व-पर का भेद विज्ञान होता है तथा आगम उपदेशपूर्वक स्वानुभव होने से 'मैं जान स्वभावी एक परमात्मा हूँ" ऐसा परमात्मा का ज्ञान होता है।
(प्रवचनसार गा० २३३ के भावार्थ से) (ओ) द्रव्यायिकनय तो एक सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाव है वह सदाकाल स्थिति (कायमी) स्वभाव रहता है। ऐसा ज्ञान हुए बिना उस स्वभाव का अवलम्बन जीव नहीं ले सकता है। इसलिए हेय-उपादेय की विवेक दृष्टि होने पर उसका अवलम्बन लिया जा सकता है और पर्यायाथिकनय का विषय वाह्य स्थितरूप है इसलिए उसका अवलम्बन छोडता है।
(अ) द्वादशाग का नाम आत्मा है, क्योकि वह आत्मा का परिणाम है और परिणाम परिणामी से भिन्न होता नहीं, क्योकि मिट्टी द्रव्य से पृथग्भूत घटादि पर्याये पायी नही जाती। __ शका-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दोनो ही आगम सामान्य की अपेक्षा समान हैं। अतएव जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशागो को "आत्मा" माना है उसी प्रकार द्रव्यश्रुत को भी आत्मा मानने का प्रसग आयेगा ? __समाधान नहीं, क्योकि वह द्रव्यश्रुत आत्मा का धर्म नहीं है, उसे जो आगम सज्ञा प्राप्त है । वह उपचार से प्राप्त है। वास्तव मे वह आगम नही है। (धवल पुस्तक १३ पृष्ठ २८२-२८३)
(अ) श्रुतज्ञान स्वय आत्मा ही है । इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है।
(समयसार गा० १५ की टीका पृष्ठ ४३)