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________________ ( ११० ) व्याख्यान करने वाला द्रव्याथिकनय है और उसके वचनो का विशेष प्रस्तार का व्याख्यान करने वाला पर्यायाथिकनय है। नय का विषय इस प्रकार है अनेक गुण और पर्याय सहित, अथवा उसके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम मे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र मे, एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभावरूप से रखने वाला द्रव्य को जो ले जाता है अर्थात उसका ज्ञान कराता है, वह नय है । द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयो के विषय मे निम्न प्रकार है वाकी तमाम भेदो के दो नय है । (धवल पुस्तक १ पृष्ठ ११-१२) (उ) जीवो को अनादि से पर्यायो के भेदो का ज्ञान होता है, परन्तु द्रव्य का ज्ञान नही होने से उनको तात्विक हेय-उपादेय का ज्ञान नही होता है । इसलिए इन दो नयो का ज्ञान ना हो तो, जो योग्य हो वह अयोग्य प्रतीत हो, और जो अयोग्य हो वह योग्य प्रतीत हो, और अज्ञान मिटे नही। (धवल पुस्तक १ पृष्ठ ७७) (धवल पुस्तक ३ पृष्ठ १७)(धवल पुस्तक १३ पृष्ठ ४) [विल्लोकपरिणति भाग १ पृष्ठ ८२) (परमात्मप्रकाश अध्याय दूसरा गा० ४३) इन सब मे हेय-उपादेय के विवेक के लिये आदेश दिया है। (ऊ) उपदेश मे कोई उपादेय, कोई हेय तथा कोई ज्ञेय तत्वो का निरुपण किया जाता है, वहाँ उपादेय हेय तत्वो की तो परीक्षा कर लेना। क्योकि इनमे अन्यथापना होने से अपना बुरा होता है। उपादेय को हेय मान ले तो बुरा होगा, हेय को उपादेय मान ले, तो बुरा होगा। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५६) (ए) हेय-उपादेय के विवेक का फल सर्वज्ञ से स्वय जाना हुआ होने से, सर्व प्रकार से अवाधित है । ऐसा शब्द प्रमाण को प्राप्त करके क्रीडा करने पर, उसके सस्कार से विशिष्ट सवेदन शक्तिरूप सम्पदा (सम्यकदर्शन) प्रगट होता है। (प्रवचनसार गा० ८६ की टीका से)
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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