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________________ ( १०६ ) है, उसका श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र रूप परिणमन करना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार गा० २४ से] कुगुरु सेवा, कुदेव सेवा तथा कुधर्म सेवा यह तीन भी सम्यक्त्व के मूढता नाम के दोष हैं। [छहढाला, तीसरी ढाल] तत्वज्ञान से परम श्रेय होता है। (अ) जो श्रुत ज्ञान के प्रसिद्ध बारह अगो से ग्रहण करने योग्य है अर्थात् बारह अगो का ममूह जिसका शरीर है । जो सर्व प्रकार के मल और तीन मूढताओ से रहित सम्यग्दर्शनरूप उन्नत तिलक से विराजमान है और विभिन्न प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिसके आभूषण हैं, ऐसे भगवती श्रुत देवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो। (धवल पुस्तक १ पृष्ठ ६) (आ) शब्द से पद की सिद्धि होती है । पद की सिद्धि से उसके अर्थ का निर्णय होता है और अर्थ निर्णय से तत्वज्ञान अर्थात हेय उपा. देय के विवेक की प्राप्ति होती है और तत्वज्ञान से परम कल्याण होता (धवल पुस्तक १ पृष्ठ १०) (इ) हेय-उपादेय के विवेक की प्राप्ति के लिये मनुष्य की उत्कृष्ट अर्थात सूक्ष्म विचार आदि सातिशय उपयोग से युक्त है उसे मनुष्य कहते है। जिस कारण जो सदा हेय-उपादेय का विचार करते हैं अथवा जो मन से गुण-दोष आदि का विचार करने मे निपुण हैं अथवा मन से जो उत्कट अर्थात (दूरदर्शन) सूक्ष्म विचार चिरकाल धारण आदि रूप उपादेय सहित है, उसे मनुष्य कहते हैं । (धवल पुस्तक १ पृष्ठ २०२-२०३ सस्कृत श्लोक १३०) (ई) हेय-उपादेय का ज्ञान और विवेक प्राप्त करने के लिये नय ज्ञान जरूरी है और वह सब नय है और उसका नाम द्रव्याथिक नय पर्यायाथिकनय । तीर्थंकरो के वचनो का सामान्य प्रस्तार का मूल है।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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