SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०८ ) उत्तर-जिन मूर्खनिनै तत्वनिज्ञा निश्चयरूप द्रव्य को देखा नही और ज्ञानरूप समुद्र नही देखा और समता नाम नदी नाही देखी। वह गगादिक (सम्मेदशिखर, गिरनार) तीर्थाभासन मे दौडता फिरता है। अनेक प्रवृत्ति मे दया, दान, पूजा आदि मे धर्म होना, पवित्रता होना तथा कितने भेषधारी अनेक क्रिया-काण्ड, होम कराना आदि कर, कल्याण होना बतावे है। कितने ही स्नानकर रसोई करने मे स्नानकरि जीमने मे तथा आला वस्त्र पहरि जीमने मे अपनी पवित्रता शुद्ध माने है परम धर्म माने हैं तो समस्त मिथ्यात्व के उदय से लोकमूढता है। [रत्नकाण्ड श्रावकाचार गा० २२ की टीका से] प्रश्न-देवमूढता क्या है ? उत्तर-ससारी जीव इस लोक मे राज्य सम्पदा, स्त्री, पुत्र, आभरण, धन-ऐश्वर्य को वाछा सहित व्यन्तर क्षेत्रपालादिक कू अपना सहाई माने हैं तथा सासारिक सम्पदा के लिए सच्चे जिनेन्द्र की भक्ति से लौकिक पद को इच्छा करे हैं तथा पद्मावती देवी की पूजा करे हैं। ताते ऐसा निश्चय जानना कि जो अनेक देव-देवी को आराध है, पूर्ज है सो देवमूढता है। (रत्नकरण्डश्रावकाचार गा० २३) प्रश्न-गुरुमूढता क्या है ? उत्तर--जिनेन्द्र के श्रद्धान ज्ञानकर रहित होय नाना प्रकार के खोटे भेष धारण करके आपको ऊँचा मान जगत के जीवो से अपनी पूजा वन्दना चाहता है। आपको आचार्य, पूज्य धर्मात्मा कहावता रागी-द्वपी हुआ प्रवत है। शुभ भावो से, निमित्तो मे भला होता है, कर्म चक्कर कटाता है तथा शुभ भाव करो और शुभ भाव करतेकरते धर्म हो जावेगा। मुनि साधु नाम धराके मन्त्र, जप, होम, निद्य आचरण करे हैं, वह पाखण्डी है जो उन पाखण्डियो का वचन प्रमाण कर उनका सत्कार करते है। सो सब गुरुमूढता है । इसलिए मिथ्यादिक मलता का नाश करने वाला जो आपा-पर का भेद जानने रूप विवेक
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy