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________________ राममा ( १०५ ) के अभाव को चारित्र कहते है। यह पापरूप क्रियाओ की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। उसको जो मोहित करता है वह चारित्र मोहनीय (धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ४०) (ओ) अनन्तानुबधी चारित्र मोहनीय--अनन्त भवो का बँधना जिसका स्वरूप है वह अनन्तानुबन्धी है।। जीव अविनष्ट स्वरूपमय भाव के साथ अनन्त भवो मे परिभ्रमण करता है, वह कषाय के उदय काल अन्तमूहर्त मात्र है और स्थिति चालीस कोडाकोडी सागरोपम है, तो भी अनन्तानुबन्धी के अर्थ मे दोष नही हैं। क्योकि इन कषायो द्वारा जीव मे उत्पन्न होने वाला सस्कार अनन्त भवो मे अवस्थान मानने में आया है । (मिथ्यात्व के सस्कार मे, प्रवचनसार गा० ६) वृद्धिगत ससार अनन्त भवो मे अनुवन्ध को नही छोडता है, इसलिए 'अनन्तानुवन्धी' यह नाम ससार का है । अनन्तानुबन्धी चार कषाय यह सम्यक्त्व और चारित्र का विरोधक है क्योकि वे सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनो को घातने वाली दो प्रकार की शक्ति से सयुक्त (धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ४२) (औ) आप्त, आगम और पदार्थों मे अश्रद्धा वह मिथ्यात्व है। (चारित्रमोहनीय की व्याख्या मे पृष्ठ ६१ मे मिथ्यात्व की परिभाषा आ गई है)। (धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ३८) (अ) अन्तरग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है ऐसा निश्चय करना। सभी कार्य एकान्त से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही उत्पन्न नही होते। [देखो न० २३,२४] ___-शालीधान के वीज से जौ के अकूर की उत्पत्ति का प्रसग प्राप्त होगा, किन्तु उस प्रकार के द्रव्य तीनो ही कालो मे, कोई भी क्षेत्र मे नही है कि जिसके वल से शालीधान के वीज मे जौ के अकुर को
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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