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( १०३ ) (१०) सयोग केवली यह परिणाम मोक्ष के कारण भूत है, क्योकि उनके द्वारा प्रतिसमय असख्यात गुण श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा पाई जाती है । किन्तु जीव, भव्य, अभव्य आदि जो पारिणामिक भाव हैं वे वध और मोक्ष दोनो में से किसी के भी कारण नहीं है।
(धवल पु० ७ पृ० १३ तथा १४) (यह भाव आत्मश्रद्धान भूत ज्ञान का, एक का ही अवलम्बन लेने से प्रगट होता है)
परावलम्बन-निमित्त के अवलम्बन से कभी भी प्रगट नही होता । (ऐसा २३वें नम्बर मे आ गया है।)
आत्मा के स्वभावभूत ज्ञान को परम पारिणामिक भाव कहते है। उसका अवलम्बन लेना अर्थात धर्म स्वावलम्बन से प्रगट होता है, परावलम्बन से नहीं। । श्री समयसार गा० २१४ मे "जीव को निरावलम्बन के कारण सवर पूर्वक निर्जरा हाती है" कहा है। इसी गा० २१४ मे जयसेनाचार्य ने लिखा है कि "अनन्त ज्ञानादि गुण स्वरूप स्वस्वभाव का ही अवलम्बन होता है।
(२६) सयत के कितने गुणस्थान हैं ?
उत्तर-'सयत'कहते ही प्रमत्तसयत आदि आठ गुणस्थानो का ग्रहण है क्योकि सयत भाव की अपेक्षा कोई भेद नही है अर्थात् छठे गुणस्थान से १३वें गुणस्थान तक का ग्रहण है। १४वा गुणस्थान नही लिया है, क्योकि वहाँ बँधपने का अभाव है। (धवल पु० ६ पृष्ठ ८०, ८२ तथा ८५ से ८८ तक, ६५, १०७, १०६, ११४, ११७)
(अ) प्रमत्तसयत-सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ७ नोकपाय, यह ११ प्रकृतियो मे चारित्र घातने को शक्ति का अभाव है इसलिए वह गुणस्थान क्षायोपशमिक भाव है।
(धवल पुस्तक ५ पृष्ठ २२०, २२१) (आ) प्रमत्तसयत--चार सज्वलन और सात नोकषाय यथाख्यात
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