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________________ ( १०२ ) कोई ८ ३ गुणस्थान मे कोई १२वे मे कहते हैं यह बात कहाँ रही)। a (धवल पु० ७ पृ० २१६) पर्यायाथिकनय के अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नही किया, तब तक जीव को भव्यत्व अनादिअनन्त रूप है। किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्य भाव उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ भव्य जीव सादिसान्त होते है। (धवल पु०७ पृ० १७७) (२२) सम्यग्दृष्टि को सम्यक् मति और सम्यक् श्रुतज्ञान होता (धवल पु०७ पृ० १६२) (२३) स्वभाव-आभ्यन्तर भाव को स्वभाव कहते हैं अर्थात् वस्तु या वस्तु स्थिति की उस अवस्था को उसका स्वभाव कहते हैं । जो उसका भीतरी गुण है और बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित नही है । (धवल पु० ७ पृ० २३८)(पर के अवलम्बन से स्वभाव प्रगट नही होता है) समयसार गा० २०४ मे लिखा है कि 'जिसमे समस्त भेद निरस्त हुआ है ऐसा आत्मस्वभावभूत ज्ञान का ही अवलम्बन करना। ज्ञान का उपादान कारण जीव है और ज्ञान उपादेय है, क्योकि वह सदा जीव मे द्रव्य और भाव रूप से रहता है । (इसी प्रकरण का नम्बर १) (२४) उपादान कारण आधीन कार्य-(श्री जयसेनाचार्य समयसार गा० २२० तथा २२७ की टीका मे कहा है कि) “अन्तरग स्वकीय उपादान कारण के आधीन होता है। (ज्ञान का उपादान कारण जीव है उससे (जीव) उसके आधीन शुद्धता होती है । (२५) बघ कारण के प्रतिपक्षी का प्रमाण इस प्रकार है-(१) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (२) देशसयम (३) सयम (४) अनन्तानुबन्धी का विसयोजन (५) दर्शनमोह का क्षपण (६) चारित्र मोहनीय का उपगम (७) उपशान्तकपाय (८) चारित्रमोह क्षपण (६)क्षीण कपाय
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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