________________ निरूपण तथा सातवें से सिपना 165-166 वात्मानुभूति से ( 241) की पर्याय नही है। और इसको सम्यग्दर्शन कहना सम्यग्दर्शन का अनात्मभूत लक्षण है आत्मभूत लक्षण नही है। क्योकि इस स्वात्मानुभूति मे वुद्धिपूर्वक विकल्प (राग) नही होता अत इसको निश्चय सम्यग्दर्शन भी कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के साथ निश्चय विशेषण लगाने से बुद्धिपूर्वक राग का निषेध हो जाता है और वह स्वात्मानुभूति दशा का द्योतक हो जाता है। श्रीसमयसार जी मे इस पद्धति का निरूपण है / वह दशा चौथे गुणस्थान में भी होती है, पानवें छठे मे भी होती है तथा सातवे से सिद्ध तक तो है ही स्वात्मानुभूति रूप दशा (प्रमाण श्री आत्मावलोकन पन्ना 165-166) / (4) जिस समय सम्यग्दृष्टि का ज्ञान स्वात्मानुभूति से छूट कर पर मे जाता है और जीवादि नौ पदार्थों को भेदरूप जानता है। उस समय उसके ज्ञान मे बुद्धिपूर्वक राग भी आ जाता है। अत उस समय बुद्धिपूर्वक ज्ञान की अपेक्षा तथा नौ तत्त्वो को भेद सहित और रागसहित जानने के कारण उस ज्ञान के परिणमन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसमे सम्यग्दर्शन शब्द तो यह बताता है कि ज्ञान श्रद्धा गुण की सम्यक्त्व पर्याय को लिये हुवे है। और व्यवहार शब्द यह बतलाता है कि उस ज्ञान मे बुद्धिपूर्वक राग भी है / यह जो नौ पदार्थों के जानने रूप ज्ञान की पर्याय को व्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है वहाँ यह विवेक रहना चाहिये कि यह सम्यक्त्व का सहयर लक्षण है और वस्तुस्थिति उपर्युक्त अनुसार है यह भी सम्यक्त्व निरूपण की पद्धति है / तत्त्वार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन इसी पद्धति से कहा जाता है। (5) सम्यग्दृष्टि आत्मा मे सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय चारित्र भी सम्यकचारित्र हो जाता है। जिस समय चौथे से ही सम्यग्दृष्टि आत्मा उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति करता है उस समय इस गुण में अबुद्धिपूर्वक तो राग रहता है पर बुद्धिपूर्वक राग नहीं रहता। अतः स्वात्मानुभूति के समय जव सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को निश्चय सम्यक्त्व कहा जाता है तो उसमे इस गुण का वीतराग अंश भी समा: