________________ ( 242 ) विष्ट है / जिस समय स्वात्मानुभूति से छूटकर सम्यग्दृष्टि आत्मा पर मे प्रवृत्त होता है जैसे पूजा, पाठ, शास्त्र स्वाध्याय प्रवचन इत्यादि मे। उस समय इस गुण मे बुद्धिपूर्वक राग का परिणमन रहता है। इस बुद्धिपूर्वक विकल्प को व्यवहार सम्यक्त्व या व्यवहार ज्ञान कह देते हैं। पर कहते है उसी जीव मे, जिसमे दर्शनमोह का उपशमादि होकर वास्तविक सम्यग्दर्शन साथ हो। मिथ्यादृष्टि के श्रद्धान या ज्ञान या चारित्र को निश्चय या व्यवहार कोई भी सम्यक्त्व नही कहते / यह बात बराबर ध्यान मे रहनी चाहिये। जहाँ कही मिथ्यादृष्टि के व्यवहार श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र कह भी दिया हो तो समझ लेना चाहिये कि वहाँ श्रद्धाभास, ज्ञानाभास तथा चारित्राभास को व्यवहार श्रद्धानज्ञान-चारित्र का नाम दिया है और सम्यक् शब्द तो मिथ्यादृष्टि के लिये प्रयोग होता ही नही है। अव इस कथन को उपर्युक्त आगम प्रमाण से मिला कर दिखाते है। श्री समयसार जी मे उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है जो मति श्रुत ज्ञान की पर्याय है पर क्योकि वह सम्यग्दृष्टि को ही होती है अत वह कथन निर्दोष है। श्री पचास्तिकाय मे सम्यग्दर्शन के सहभावी ज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है। श्री दर्शनपाहुड मे सम्यक्त्व के अविनाभावी चारित्रगुण के बुद्धिपूर्वक विकल्प सहित ज्ञान के परिणमन को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है और उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति को निश्चय सम्यक्त्व कहा है। श्रीप्रवचनसार मे सम्यक्त्व के अविनाभावी सामान्यज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है चाहे वह ज्ञान लब्धिरूप हो या उपयोग रूप हो। श्री पुरुषार्थसिद्धि तथा श्री द्रव्यसग्रह मे श्रद्धागुण की सीधी सम्यग्दर्शन पर्याय का निरूपण है उसमे निश्चय व्यवहार का भेद नही है। श्रीरत्नकरण्डश्रावकाचार मे सम्यक्त्व की अविनाभावी चारित्र गुण के देव शास्त्र गुरु के विकल्पात्मक परिणमन को सम्यग्दर्शन कहा है। श्री मोक्षशास्त्र मे सम्यक्त्व के अविनाभावी ज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है श्री सर्वार्थसिद्धि मे प्रशम,