________________ ( 240 ) वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा / विरागं क्षायिकं सत्र सरागमपरं द्वयम् // 65 // अर्थ-वीतराग पर सराग ऐमै सम्यक्त्वदीय प्रकार कह्या है। तथा क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और क्षयोपशम, उपगम ए दोय सम्यक्त्व सराग हैं। (2) अध्यात्म मे पहली तीन पर्यायो को सामान्यतया मिथ्यादर्शन कहा जाता है और पिछली तीन पर्यायो को सामान्यतया सम्यग्दर्शन कहा जाता है / अथवा यूं भी कह सकते है कि सासादन और सम्यक् मिथ्यात्व का अध्यात्म मे निरूपण नहीं होता केवल मिथ्यात्व पर्याय का निरूपण होता है जो श्रद्धा गुण की विभाव या विपरीत पर्याय कही जाती है क्योकि अध्यात्म का निरूपण ऐसे ढग से होता है जो हम लोगो की पकड मे आ सके / उसी प्रकार औपशमिक सम्यक्त्य, क्षायो‘पशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व, ये तत्त्वार्थ श्रद्धान या आत्म श्रद्धान इसका लक्षण है / इस पर्याय मे निश्चय व्यवहार का कोई भेद नही है / गुणभेद करके केवल श्रद्धागुण की अपेक्षा यदि जानना चाहते हो तो वस सम्यग्दर्शन के बारे मे इतनी ही बात है। (3) अव अभेद की दृष्टि से कुछ निरूपण करते है / सम्यग्दृष्टि मात्मा मे सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय चौथे मे ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। उस ज्ञान गुण का परिणमन उपयोग रूप भी है। यह उपयोग किसी समय स्व को जानता है तो किसी समय पर को जानता है। जिस समय चौथे मे ही उस सम्यग्दष्टि आत्मा का ज्ञानोपयोग सब पर शेयो से हटकर केवल आत्मसचेतन करने लगता है उस समय उसको उपयोग रूप स्वात्मानुभूति कहते हैं। उस समय बुद्धिपूर्वक विकल्प (राग) नही होता। आत्मा का उपयोग केवल स्व सन्मुख होकर अपने अतीन्द्रिय सुख का भोग करता है। इस ज्ञान की स्वात्मानुभूति को अखण्ड मात्मा होने के कारण 'सम्यग्दर्शन' भी कह देते हैं पर इतना 'विवेक रखना चाहिये कि यह मति श्रुत ज्ञान की पर्याय है / श्रद्धा गुण