________________ ( 207 ) : एक है / ऐसा नहीं है कि उसका कुछ भाग गुण रूप हो और कुछ भाग * पर्याय रूप हो अर्थात् गौरस के समान, अघ स्वर्णपाषाण के समान, छाया आदर्श के समान अनेकहेतुक एक नहीं है किन्तु स्वत सिद्ध एक (438 से 448 तक, 753) प्रश्न ११३--क्षेत्र से सत् एक कैसे है ? उत्तर-जिस समय जिस द्रव्य के एक देश मे जितना, जो, जैसे सत् स्थित है, उसी समय उसी द्रव्य के सब देशो मे भी उतना, वही वैसा ही समुदित स्थित है। इस अखण्ड क्षेत्र मे दीप के प्रकाशो की तरह कभी हानिवृद्धि नही होतो। (453, 753) प्रश्न ११४-काल से सत् एक केसे है? उत्तर-एक समय मे रहने वाला जो, जितना और जिस प्रकार का सम्पूर्ण सत् है-वही, उतना और उसो प्रकार का सम्पूर्ण सत् समुदित सब समयो मे भी है। काल के अनुसार शरीर की हानिवृद्धि की तरह सत् मे काल की अपेक्षा से भी हानिवृद्धि नहीं होती है। वह सदा अखण्ड है। (473, 753) प्रश्न ११५-~-भाव से सत् एक कसे है ? उत्तर-सत् सब गुणो का तादात्म्य एक पिण्ड है। गुणो के अतिरिक्त और उसमे कुछ है ही नहीं। किसी एक गुण की अपेक्षा जितना सत् है प्रत्येक गुण की अपेक्षा भो वह उतना ही है तथा समस्त गुणो की अपेक्षा भी वह उतना ही है यह भाव से एकत्व है / स्कध मे परमाणुओ की हानिवृद्धि की तरह सत् के गुणो मे कभी हानिवृद्धि नही होती। (481 से 485 तक 753) प्रश्न ११६-सत् के अनेक होने में क्या युक्ति है ? उत्तर-व्यतिरेक के बिना अन्वय पक्ष नहीं रह सकता अर्थात् अवयवो के अभाव मे अवयवी का भी अभाव ठहरता है। अतमलवयवो की अपेक्षा से सत् अनेक भी है।