________________ ( 188 ) मे दोनो धर्म दीखते हैं। आपस मे प्रेमपूर्वक रहते है कहो, या परस्पर की सापेक्षता से कहो, या मित्रता से कहो, या अविरोधपूर्वक कहो। इसलिए जो दृष्टि परस्पर दो विरोधी धर्मो को अविरोध रूप से एक ही समय एक ही वस्तु मे कहे उसे प्रमाण दृष्टि या उभय दृष्टि कहते है / सो सत् सामान्यविशेपात्मक है यह अस्ति नास्ति को बताने वाली प्रमाण दृष्टि है इसका वर्णन न० 759 मे है / (10) फिर आपकी दृष्टि वस्तु के त्रिकाली स्वभाव और परिणमन स्वभावदोनो स्वभावो पर एक साथ पहुंची तो आप कहने लगे कि वस्तु नित्य भी है अनित्य भी है। नित्यानित्य है। उभय रूप है / यह प्रमाण दृष्टि है इसका वर्णन न० 763 मे है। (11) फिर परिणमन करती हुई वस्तु मे आपकी दृष्टि तत् अतत् धर्म पर गई। आपको दीखने लगा कि जो वही का वही हे वही तो नया-नया है-अन्य-अन्य है। दूसरा थोडा ही है। इसको कहते है तत् अतत् को बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि / इसका वर्णन न० 767 मे है। (12) फिर आपकी दृष्टि वस्तु के एक अनेक धर्मो पर पहुची। जब आप प्रदेशो से देखने लगे तो अखण्ड एक दोखने लगा, लक्षणो से देखने लगे तो अनेक दीखने लगा तो झट आपने कहा कि वस्तु एकानेक है / जो एक है वही तो अनेक है। इसको कहते है एक अनेक को वतलाने वाली प्रमाण दृष्टि / इस दृष्टि का वर्णन 755 मे है। (D) अब आपको अनुभय दृष्टि का परिज्ञान कराते हैं / (13) ऊपर आप यह जान चुके हैं कि एक दृष्टि से वस्तु सामान्य रूप है / दूसरी दृष्टि से वस्तु विशेष रूप है। तीसरी दृष्टि से वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। अब एक चौथी दृष्टि वस्तु को देखने की और है। उस दृष्टि का नाम है अनुभय दृष्टि। जरा शान्ति से विचार कीजिये-वस्तु मे न सामान्य है, न विशेष है, वह तो जो है सो है / अखण्ड है / यह तो आपको वस्तु का परिज्ञान कराने का एक ढग था।