________________ ( 187 ) अब तत् अतत् नय को समझाते है। (5) जब आपने वस्तु को परिणमन करते देखा, तो आपकी दृष्टि हुई कि अरे यह तो वही का वही है जिसने मनुष्य गति मे पुण्य कमाया था वही स्वर्ग मे फल भोग रहा है। तो आपने कहा 'सत् तत् है' / यह तत् नामा व्यवहार नय है। इसका वर्णन न० 765 मे है / (6) फिर आपकी दृष्टि परिणाम पर गई आपने कहा अरे वह तो मनुष्य था, यह देव है, दूसरा ही है, तो आपने कहा 'सत् अतत है' यह अतत् नामा व्यवहार नय है इसका वर्णन न० 764 मे है। अब एक अनेक का परिज्ञान कराते हैं / (7) किसी ने आपसे पूछा कि सत् एक है या अनेक : तो पहले आपकी दृष्टि एक धर्म पर पहुची, आपने सोचा, उसमे प्रदेश भेद तो है नही, कई सत् मिलकर एक सत् बना ही नहीं, तो आपने झट कहा कि 'सत् एक है' यह एक नामा व्यवहार नय है इसका वर्णन न 6 753 मे है। (8) फिर आपकी दृष्टि अनेक धर्मों पर गई, आपने सोचा, अरे द्रव्य का लक्षण भिन्न है, गुण का लक्षण भिन्न है, पर्याय का लक्षण भिन्न है, इन सब अवयवो को लिये हुए ही तो सत् है तो आपने कहा 'सत् अनेक है' यह अनेक नामा व्यवहार नय है इसका वर्णन न० 752 मे है / इस प्रकार इस ग्रन्थ मे आठ प्रकार की व्यवहार नयो का परिज्ञान कराया है। (C) अब आपको प्रमाण दृष्टि का परिज्ञान कराते है। जब आपकी दृष्टि सत् के एक-एक धर्म पर भिन्न-भिन्न रूप से न पहुच कर इकट्ठी दोनो धर्मो को पकडती है तो आपको सत् दोनो रूप दृष्टिगत होता है। दोनो को सस्कृत मे उभय कहते हैं। __(8) अच्छा बतलाइये कि सत् सामान्य है या विशेष / तो आप कहेगे जो सामान्य सत् रूप है वही तो विशेष जीव रूप है दूसरा थोडा ही है। सामान्य विशेष यद्यपि दोनो विरोधी धर्म हैं / पर प्रत्यक्ष वस्तु