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( १०४ ) उत्तर-यम-नियमादि करने पर भी सम्यग्दर्शन के विना धर्म की शुरुआत, वृद्धि, पूर्णता नही होती है। इसलिए चागे अनुयोगो मे प्रथम सम्यग्दर्शन का ही उपदेश दिया है।
प्रश्न १५८-क्या सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना व्यवहार नहीं होता है ?
उत्तर-नही होता है, क्योकि सम्यग्दर्शन स्वय व्यवहार है और त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव वह निश्चय है ।
प्रश्न १५६-सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना व्यवहार नहीं होता है ऐसा कहां कहा है।
उत्तर- चारो अनुयोगो मे कहा है। मुख्य रूप से श्री प्रवचनसार गा० ६४ मे "मात्र अचलित चेतना वह ही मैं हूँ ऐसा माननापरिणमित होना सो आत्म व्यवहार है" अर्थात् आत्मा के आश्रय से जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र प्रगट होता है वह व्यवहार है।
प्रश्न १६०-अज्ञानी व्यवहार किसे कहता है और उसका फल क्या है ?
उत्तर-बाहरी क्रिया और शुभ विकारी भावो को व्यवहार कहता है और उसका फल चारो गतियो का परिभ्रमण है।
प्रश्न १६१-सम्यग्दर्शन होने पर संसार का क्या होता है ?
उत्तर-जैसे-पत्थर पर विजली पड़ने पर टूट जाने से वह फिर जुडता नही है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञानी ससार मे जुडता नही है, वरिक धावक, मुनि श्रेणी मांडकर परम निर्वाण को प्राप्त करता है।
प्रश्न १६२-आप प्रथम सम्यग्दर्शन की ही बात क्यो करते हो, व्रत-दान-पूजादि की बात तथा शास्त्र पढ़ने आदि की बात क्यो नहीं करते हो?
उत्तर- सम्यग्दर्शन प्राप्त किए बिना व्रत, दान, पूजादि मिथ्या चारित्र तथा शास्त्र पढना आदि मिथ्याज्ञान है। इसलिए हम व्रत