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पराना, मैला कचैला या किसी का उतरा हया वस्त्र अपनी कमर पर लपेट कर लज्जा को जीतनेका प्रयास कर सकता है। जब उसे जरा भी लोकलाज का भय न रहे तब वह यदि वस्त्र न रक्खे तो वैसा हो सकता है। इसी प्रकार पात्र रखने में भी संयम की ही साधना समाई हुई है। आहार करते समय मात्र हाथ ही में लेकर स्निग्ध और द्रवित पदार्थ खाने से उसका कितनाएक हिस्सा नीचे भी गिर जाता है और उससे कल्पित दृष्टि से हिंसा की विशेष संभव है। तथा जो मनि बीमार हो, बिस्तर से उठ न सकता हो उसका भी पात्र बिना निर्वाह नहीं हो सकता। यदि पात्र हो तो उसके लिये दूसरा मुनि पात्र द्वारा तचित आहार पानी ला सकता है, एवं पात्र होने से ही उसके सौच वगैरह कर्म हो सकते हैं। जो साधु वस्त्र पात्र रक्खे बिना निर्दोष संयम पाल सकते हैं उनके लिये वस्त्र पात्र रखने की कोई राजाज्ञा नही है। विक्रमक्री ७ वी ८ वीं शताब्दी तक तो साधु कारण पड़ने पर ही वस्त्र रखते थे, सो भी मात्र एक कटीवस्त्र ही रखते और यदि वह कटीवस्त्र भी निष्कारण पहना जाता तो वह साधु कसाध माना जाता था। इस विषय में श्री हरिभद्र सरिर्ज ने अपने संबोध प्रकारण में इस प्रकार उल्लेख किया है।
"कीवो न कणइ लोयं, लज्जइ पडिमाइ जल्ल मवणेइ। सोवाहणो ये हिंडइ बंधइ कडिपट्टयमकाज्जे" (संबोध प्रकरण पृ० १४)
अपने समय के कुसाधुओं का स्वरूप दर्शाते हुये श्री हरिभद्रसूरि ने उपरोक्त गाथा में बतालाया है कि "क्लीब-दर्बल श्रमण लोच नहीं करते, प्रतिमा वहन करते शर्माते हैं, शरीर पर का मल उतारते हैं, पैरों में जूता पहन कर चलते हैं और-बिना प्रयोजन कटी वस्त्र बांधते हैं।
इस प्रकार साधुओं को एक कटिवस्त्र ही रखने की बात साबित होती है और सो भी सूत्र साहित्य की संकलना हये बाद के ग्रन्थों से, याने अर्वाचीन ग्रन्थो से प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध में आचाराग सत्र में लिखा है कि जो साधु वस्त्र नहीं रखता उसे यह चिन्ता नहीं रहती कि-मेरा वस्त्र फट गया, दूसरा वस्त्र मांगना पड़ेगा, सूत मांगना पड़ेगा, सई मागनी पड़ेगी, वस्त्र सीना पडेगा, पहनना पड़ेगा इत्यादि (३६०) ___ "वस्त्र रहित रहनेवाले मुनियों को कदाचित् तृण कांटे, ठडी, ताप लगने, डास, मच्छर वगैरह का कष्ट सहना पड़े, परन्तु ऐसा करने से लाघव (अल्प चिन्ता-निरूपाधिकता) प्राप्त होती है और तप भी होता है" (३६१)
"अतः जो भगवान ने कथन किया है उसी को समझकर ज्यो बने त्यों सब जगह समानता बानते रहना," (३६२)