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आचारांग सूत्र के उपरोक्त उल्लेख से यह बात साफ मालूम होती है कि समर्थ एव सहन शील मुनि सर्वथा नग्न रहते थे और भगवान की बतलाई हुई समता को कायम रखने का भरसक प्रयत्न करते थे। उस सूत्र में ऐसा एक ही नहीं किन्तु अनेक उल्लेख मिलते हैं। उसमें दूसरे श्रुतास्कन्ध विभाग में, वस्त्रैषणा नामक एक प्रकरण आता है, जिसमें मुनिको कैसे वस्त्र और क्यो लेने चाहियें, इस विषय का व्योरेवार स्पस्टीकरण किया है। वहा बतलाया गया है कि- "तीसरी प्रतिज्ञा- साधु या साध्वीको जो वस्त्र गृहस्थी ने अन्दर पहन कर वर्त लिया हो वा ऊपर पहन कर वर्त लिया हो उस तरह का वस्त्र गृहस्थी से माग लेना अथवा गृहस्थ स्वयं देवे तो निर्दोष समझ कर ग्रहाण करना । " ( ८१३)
"चौथी प्रतिज्ञा -मुनि या आर्याकों फेक देने लायक वस्त्र मागना चाहिये, याने जिस वस्त्र को अन्य कोई भी श्रमण, मुसाफर, रक या भिखारी न चाहे वैसा वस्त्र मांग लेना या गृहस्थ स्वयं देवे तो निर्दोष मालूम होने पर ग्रहण करना।" (८२४)
उस सूत्र मे वस्त्र रखने के कारण वतलायें हुये कहा गया है कि जो साधु वस्त्र रहित नग्न होता है उसे यह मालूम होता है कि मैं घास का या काटे का स्पर्श सह सकता हू, शीत, ताप, डास, तथा मच्छरो के उपद्रव को सहन कर सकता हू, एव अन्य भी प्रतिकूल, अनुकूल परिषह सह सकता हू। परन्तु नग्न रहते हुये लज्जा परिषहको सहन न कर सकने वाला मुनि कटिबन्धनafeवस्त्र रक्खे। (४३३)
"यदि लज्जा को जीत सकता हो तो अचेल (नग्न दिगम्बर) ही रहना । वैसे रहते हुये तृणस्पर्श, शीत, ताप, डास, मच्छर तथा अन्य भी जो अनेक परिषह आवे उन्हे सहन करना, ऐसा करने से अनुपाधिकता - लाघव प्राप्त होता है और तप भी होता है । अत. जैसा भगवान ने कहा है उसी को समझ कर ज्यों बने त्यों सब जगह समता समझते रहना।" (४३२)
कितने एक मुनि एक वस्त्र और एक ही पात्र रखते थे या दो वस्त्र और दो ही पात्र रखते थे । इस विषय मे निम्न उल्लेख में बतलया गया है कि
"जिस साधु के पास पात्र के साथ मात्र एक ही वस्त्र हो उसे यह चिन्ता न होगी कि मैं दूसरा वस्त्र मांगूगा। वह मुनि निरवद्य वस्त्र की याचना करे और जैसा मिले वैसा पहने। यावत् ग्रीष्मर्तु आने पर उस जीर्ण वस्त्र का परित्याग कर दे, अथवा वह एक वस्त्र कहने । परन्तु अन्तमें उसे छोड़ कर वस्त्र रहित हो निश्चिन्त हो जाय। ऐसा करने से उसे तप प्राप्त होता है।