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श्वेताम्बर दिगम्बरवाद।
श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दोनों शब्द जैन संप्रदायके श्रमणोपासकोश्रावकों के साथ जरा भी सम्बन्ध नही रखते। यदि उनके साथ सम्बन्ध लगाया भी जाय तो दोनों शब्दो का उनमें प्रवृत्तिकारण न घटने से उनके लिये ये दोनों शब्द निरर्थक से ही हैं। उनमें श्वेताम्बरत्व या दिगम्बरत्व सूचित करनेवाला एक भी चिन्ह न होने से श्वेताम्बर और दिगम्बर सज्ञा वर्षाती कीडेको इंद्रगोप (इंद्रका पालन करने वाला) कहने के समान पारम्परिक रूढ़ और अर्थ शून्य है। यदि श्वेताम्बर कहलाने वाले गृहस्थ मात्र श्वेत ही वस्त्र पहनते हो और दिगम्बर कहलाने वाले नग्न ही रहते हों तो उनके लिये उपरोक्त शब्द का व्यवहार किया जा सकता है, यह व्युत्पत्ति शास्त्रका नियम है। इससे मैं यह अनुमान कर सकता हूं कि इन शब्दों की प्रवृत्ति चाहे तब हुई हो, परन्तु उसका मूल कारण हमारे मुनिराज ही होने चाहिये। इन शब्दो के मूल प्रवर्तक साध मनियों को वर्तमान सरकार की ओर से धन्यवाद मिलना चाहिये, कि जिसके परिणाम मे वह अदालतों के द्वारा दोनों समाजों से लाखो रुपये कमा रही है। श्वेताम्बर और दिगम्बर संज्ञा का सम्बन्ध मुनियों की चर्याके साथ ही है, इससे और भी एक बात मालूम हो जाती है और वह यह कि उस समय दोनों के श्रमणोपासकों की चर्या मे कुछ भी भेद न होगा। वर्तमान मे जो भेद देख पडता है यह उन्ही तपोधनो के दुराग्रहरूप तालवृक्ष का रस है जिन्होने साधारण-प्रकार के भेद को भी एक मार्गरूप से पकड़ रक्खा होगा। इस बात की यथार्थता का अनुभव तो तभी हो सकता है जब कि हमारा पीया हुआ कदाग्रहतातवृक्ष रस का नसा उतर सके।
श्वेताम्बरों के सूत्र कहते है कि वस्त्र और पात्र भी रखने चाहिये, इसके बिना दुर्बल, सुकुमार और रोगियो के लिये संयम दुराराध्य है। यदि साधु वस्त्र न रक्खें तो ठडी के मौसम मे असहनशील साधओ की क्या दशा हो? अग्नि सलगाकर तापने मे जो हिसा लगती है वस्त्र रखने मे उतनी हिंसाका सभव-नहीं है। मनियो को विशेषत जगलो में रहने के कारण वहा पर मच्छर आदि जन्तुओं का उपद्रव होने का विशेष संभव है, अत: जो मुनि इतना दुःख न सह सकता हो यदि वह वस्त्रादि न रक्खे तो उसे बिना कारण संयम पालने से पीछे हटना पडता है। तथा जिस मुनिने लज्जा को नहीं जीता है उसे भी वस्त्र रखने की आवश्यकता है। क्योंकि वह मुनि फटा ट्टा वा