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________________ इस दृष्टि से शास्त्र पौरूषेय हैं, परिवर्तित हैं और अनित्य हैं। इस मान्यता की नीव पर साहित्य विकार के साथ सम्बन्ध रखने वाला मेरा प्रस्तुत प्रश्न यक्त गिना जाय तो इसमें जरा भी अनुचित न होगा। इस प्रश्न को विस्तार पूर्वक समझाने के लिये वर्तमान शासन के नायक श्रीवर्धमान का इतिहास उनकी जीवन दशा और उनके समय का वातावरण इत्यादि के उल्लेखकों में सबसे पहले स्थान देना उचित समझता है। जिस समाज को मैं प्रकृत विषय का परिज्ञान कराना चाहता है। वह समाज भगवान वर्धमान के नाम से, गण से, रूप से, और उनके स्थल जीवन से सुपरिचित है। उसकी श्रीवर्धमान के प्रति इतनी अट भक्ति है कि प्रतिवर्ष समाज के बालक तक भी अपने पूज्य पुरुष के जीवन को एक दफा सुनने में आलस्य नहीं करते। उसको नाम के लिये लाखों रूपयों का होम किया जाता है, उसकी स्थापना-मूर्ति के वास्ते करोड़ों रूपयों का व्यय किया गया है और वह खर्च वर्तमान समय में भी प्रचलित ही है। ऐसे श्रीवर्धमान भगवान का जैन समाज को परिचय देना यह माता के पास मौसाल की प्रशंसा करने जैसी पुनरुक्ति मात्र है। यद्यपि जैन समाज श्रीवर्धमान के साथ इतना गाह परिचय रखता है, तथापि मैं हिम्मत पूर्वक इतना कह सकता हूं कि वर्तमान श्रद्धालु वर्ग उस महा पुरूष के अन्तर्गत जीवन से या वास्तविक जीवन से बहुत कम परिचय रखता है। ऐसा होने से ही श्री वर्धमान की मूर्ति के लिये अतुल धन खर्च ने वाले श्रीमन्त या उपदेशकमुनि उनके यथास्थित जीवन पथ पर गमन करने या कराने के लिये इस युगमें भी अशक्त ही रहे हैं। जिन्हें प्रथम से ही पुरानी दन्त कथाए. मिश्र कथाएं या बड़ी बड़ी बड़ाई की बनावटी बातें सुनने की आदत पड गई है और जिनके बजों की तरफ से भी उसी आदत को पष्टि मिलती जा रही है वे किसी भी ऐतिहासिक सत्य-यथार्थ सत्य की तरफ लक्ष्य करें यह एक मुश्किल सी बात है। जैन समाज विशेषतः च्यापारी होने के कारण धार्मिक इतिहास की ओर कदाचित् ही दृष्टिात करता है। व्यापार और निर्वाह की प्रवृत्ति की तीव्रता के लिये एवं उसमें विशेष सावधान रहने की आवश्यकता के कारण निरवकाश जैनियों को सत्य गवेषणा के लिये बहत ही कम समय मिलता है। सत्य गवेष्णा की बात तो दूर रही परन्त वे अपने बारोग्य के लिये अपने 'सगे, सम्बन्धियों के स्वास्थ्य सुधार के लिये, अपनी सन्तानों की शिक्षा के वास्ते और अपना जीवन घड़ने के लिये भी घड़ीभर विचार करने का समय नहीं निकाल सकते। इसी कारण उनके राष्ट्रीय जीवन का भी विकाश नहीं हुआ मालूम होता। इससे उनके धार्मिक जीवन या व्यवहारिक जीवन के नियमों का आधार जैन समाज के धर्मोपदेशकों-साधु मुनियों की देशना पर
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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