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________________ 4 जिन्हें समाज अपने सर्वस्व का भोग देकर पोषित कर रहा है अवलम्बित है। यदि वे उपदेशक विशुद्ध मार्ग बतलावे तो यह समाज उस मार्ग की तरफ झुक सकता है अन्यथा नदी प्रवाह के समान गतानुगतिक से गमन कर रहा है ओर ऐसे ही करता रहेगा। यदि मेरी भूल न होती हो तो जहा तक मैंने समझा है ऐसा नि. स्वार्थी उपदेशक क्वचित ही देखने में आया है कि जो चतुर वैद्य के समान समाज की नबज देखकर उसे उस रोगके अनुसार उपदेशरूपी औषधि प्रदान करता हो। यदि ऐसी परिस्थिति में श्रीवर्धमान के यथास्थित जीवन से अपरिचित रहे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इस बात का पूर्ण उत्तर दायित्व धर्मादा जीवी उपदेशकों पर ही है। यहा पर श्रीवर्धमान के यथावत् जीवन का उल्लेख करने में हमे अन्य आवश्यक बातो को संक्षिप्त करना पड़ेगा और वह उनका जीवन इतिहास विशेष गम्भीर होने से उसका उल्लेख एक दूसरे निबन्ध मे करने का विचार किया है। श्रीवर्धमान के समय की परिस्थिति के कितने एक खास अभ्यासी विद्वानो ने उस विषय में जो विचार प्रगट किये है उन्हें मैं नीचे उद्धृत करता हूं। "महावीर ने डिण्डिम नादसे भारतवर्ष मे मोक्षका यह सन्देश विस्तृत किया था कि धर्म सामाजिक रूढ़ी मात्र नही किन्तु वास्तविक सत्य है, मोक्ष साम्प्रदायिक बाह्य क्रिया काण्ड पालन करने से नही मिलता परन्तु सत्यधर्म के स्वरूप में आश्रय लेने से प्राप्त होता है और धर्म मे मनुष्य एव मनुष्य के बीच का भेद स्थायी नही रह सकता' साहित्य सम्राट श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर - (महावीर जीवन विस्तार पृ० स० १२) "1 २५०० वर्ष पहले आर्यावर्त की स्थिति ऐसी थी - धर्म की यथार्य भावना का नाश हो जाने पर उसका स्थान अर्थ हीन आचार विचारो ने ग्रहण किया था। उत्तम सामाजिक और नैतिक नियम, दुष्ट जाति भेद से ब्राह्मणो के लिये विशेष अधिकार और शूद्रो के लिये घातक प्रवृत्ति से विकृत हो गये थे । इस प्रकार के जाति जन्य विशेष अधिकार से ब्राह्मणो की स्थिति प्रत्युत खराब हो गई थी। समस्त समाज के तौरपर वे इतनी हद तक लोभी और लालची, अज्ञान अभिमानी बन गये कि ब्राह्मण सूत्रकारो को भी इस वस्तु स्थिति की कडी भाषा में टीका करनी पडी थी। जिन शूद्रों ने आर्य धर्मके छत्र नीचे आश्रय लिया था, उनके लिये धार्मिक शिक्षण और व्रत क्रिया आदिका निषेध किया गया था। सामाजिक सन्मान तो उनके लिये बिल्कुल उठ गया था। जिस समाज मे वे निवास करते थे उस समाज की तरफ से परिवर्तन के लिये आतुरता पूर्वक राह देख रहे थे" - दत्त महाशय (महावीर जीवन विस्तार पृ० ९-१० ) ।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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